ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय के मुद्दे पर अध्यात्मवादी, अधिदैवीवादी, अधिभौतिकवादी नजरिये से सुदूर विगत में ही सोचना मानव परम्परा में ख्यात रहा अथवा विदित रहा। इन तीनों विधाओं का एकत्रित नामकरण आदर्शवाद रहा। इन तीनों में समानता का बिन्दु रहस्य ही है।
भौतिकता से अधिक वाला भी एक रहस्य।
देवता अपने में एक रहस्य,
अध्यात्म अपने आप में रहस्य है।
आदर्शवाद का मूल आधार स्थली, गम्यस्थली दोनों रहस्य है। रहस्य के आधार और गम्यस्थली होने के आधार पर ही मतभेदों का होना आवश्यक रहा।
इसी के साथ-साथ अनेक विधि से प्रयोग, अभ्यास का भी प्रयास हुआ। जितने भी प्रकार से इन तीनों विधाओं में प्रयास हुए अभ्यास, साधन, योग, ध्यान से लेकर पूजा, पाठ, प्रार्थना तक, इन सभी कृत्यों के फलन के रूप में जो आश्वासन मिला, वह मोक्ष और स्वर्ग,
मोक्ष भी एक रहस्य,
स्वर्ग भी एक रहस्य रहा
और यही गम्यस्थली कहलाता रहा।
आधार भी रहस्य होना इस प्रकार से रहा है।
• रहस्य से ही,
• रहस्य में ही शून्य,
• ब्रह्म से ये सभी सृष्टि, स्थिति-लय हुई, अथवा
• भौतिक क्रियाकलाप से परे किसी वस्तु से सृष्टि स्थिति-लय हुई।
इस प्रकार शुरुआत रहस्य से और अन्त भी रहस्य से हुआ।
अन्त, शुभद रहस्य स्वर्ग और मोक्ष से। शुभद इसीलिए कि स्वर्ग और मोक्ष को आनन्द है, रहस्य इसीलिए कि रहस्य में इसका अन्त होने से।
इन्हीं तीनों प्रकार की संयुक्त आशय रूपी
आदर्शवाद के अनुसार दृश्य, दृष्टा, दर्शन के बारे में
ब्रह्मवादियों (अध्यात्मवादी) के अनुसार
ब्रह्म ही दृष्टा,
ब्रह्म ही अपने संकल्प के अनुसार दृश्य और
ब्रह्म ही दर्शन करने वाली दृष्टि है।
वैसे ही अधिदैवीवाद वाले भी कहते हैं, जो दस्तावेजों के अनुसार पढ़ने को मिलता है, उसके अनुसार शक्ति विद्या, शिव विद्या, और विष्णु विद्या तीन प्रतिपादित हैं।
शक्ति में ही सम्पूर्ण दृश्य, स्थिति-लय है।
वैसे ही तीनों में ये देवाधीन है।
सभी दृश्य इसीलिए है कि दृश्य रूप में देवताओं का संकल्प है,
देवता ही दृष्टा हैं,
दर्शन करने वाला भी देवता है।
इसी प्रकार अधिभौतिकवाद के अनुसार भी
भौतिकता से अधिक ताकतवर कोई रहस्यमयी दृष्टा, दृश्य, दर्शन होने की बात कही गयी है।
इसी क्रम में ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय के बारे में भी बात बताई गई है।
ब्रह्म ही अथवा देवता,
स्वयं में ही ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय के रूप में,
ध्यान, ध्याता, ध्येय ये सब है।
कार्य, कारण, कर्ता के रूप में भी ईश्वर अथवा देवता को मानने के लिए तैयार है।
ये पहले की आवाज इस रूप में ही रही है।
सह-अस्तित्ववादी सोच के अनुसार ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय को ठीक-ठीक अध्ययन किया जा सकता है।
ज्ञाता के रूप में जीवन को,
ज्ञान के रूप में सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान; जीवन ज्ञान; मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान को पहचाना गया।
जागृति पूर्वक मानवाकाँक्षा, जीवनकाँक्षा को सार्थक बनाना ज्ञेय का तात्पर्य है, अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था पूर्वक मानव लक्ष्य, जीवन लक्ष्य को प्रमाणित करना है, यही ज्ञेय के सार्थक होने का प्रमाण है।
इसी प्रकार दृष्टा, दृश्य, दर्शन की भी सार्थक व्याख्या हो पाती है।
दृष्टा पद में जीवन,
दृश्य पद में सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व,
दर्शन के अर्थ में अस्तित्व दर्शन के रूप में सार्थक व्याख्या होना हो जाता है।
ध्यान, ध्याता, ध्येय भी इसी क्रम में स्पष्ट होता है।
ध्येय जागृति के रूप में,
ध्यान समझदारी से सम्पन्न होने; समझदारी को प्रमाणित करने के क्रम के रूप में,
ध्याता जीवन के रूप में पहचानने की व्यवस्था है।
कर्त्ता, कार्य, कारण भी स्पष्ट है।
कर्त्ता पद में जीवन,
कार्य पद में मानव; देव मानव; दिव्य मानव पद-प्रतिष्ठा,
कारण के रूप में सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व नित्य प्रतिष्ठा है।
साध्य, साधन, साधक के रूप में जो सोचा जाता था, सहअस्तित्ववादी नजरिये से
साधक को पहचानने का तरीका बहुत आसान, प्रयोजन से जुड़ा हुआ होना पाया जाता है। सहअस्तित्ववादी नजरिये से साधक मानव के रूप में पहचानने में आता है।
साध्य के रूप में जीवन जागृति सुलभ हो पाता है।
मानव स्वत्व, स्वतंत्रता, अधिकार के रूप में जागृति ही पहचानने में आता है।
• ऐसे स्वत्व, स्वतंत्रता, अधिकार, समझदारी के रूप में और ऐसी समझदारी ज्ञान, विज्ञान, विवेक रूप में पुन: स्वत्व, स्वतंत्रता, अधिकार वैभवित होना पाया जाता है। यही जागृति का प्रमाण है।
• इस प्रकार साध्य कितना सार्थक है अर्थात् जागृति रूपी साध्य कितना सार्थक है, हर व्यक्ति सोच सकता है।
साधन के रूप में शोध, अनुसंधान के लिए कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता, परम्परा रूप में प्रमाण, यही साधन है।
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