क्लेश परिपाकात्मक - संग्रह, द्वेष, अविद्या, अभिमान एवं भयात्मक प्रवृत्तियों पर आधारित संपूर्ण व्यवहार, उत्पादन एवं आचरण स्वयं में, से, के लिए क्लेश सहित है।
क्लेश परिपाकात्मक मूल प्रवृत्तियां छह प्रकार के आवेशों में गण्य है। यही षड-विकारों में मान्य है।
कामावेश सम्मोहन पूर्वक,
क्रोधावेश विरोधवश,
लोभावेश संग्रहवश,
मोहावेश रहस्यतावश,
मदावेश अभिमान एवं आडंबरवश,
मत्सर्यावेश असह-अस्तित्व एवं भयवश
कामावेश सम्मोहन पूर्वक,
क्रोधावेश विरोधवश,
लोभावेश संग्रहवश,
मोहावेश रहस्यतावश,
मदावेश अभिमान एवं आडंबरवश,
मत्सर्यावेश असह-अस्तित्व एवं भयवश
यही छह प्रकार के आवेश अमानवीयता को प्रकट करते हैं। फलत: क्लेश निष्पत्तियां होती हैं।
मनुष्य की विवेचना एवं अनुभवपूर्ण क्षमता ही प्रत्येक प्रकटन की स्पष्टता का अध्ययन करती है। प्रलोभन एवं सम्मोहन पूर्ण जीवन में प्रकटन की सूक्ष्मता को ग्रहण करने तथा विश्लेषणपूर्वक उसे प्रसारित करने की क्षमता होती है। जड़ प्रकृति का विश्लेषण जीवन का विश्लेषण नहीं है वह केवल रासायनिक विश्लेषण है। मनुष्य मूलत: चैतन्य प्रकृति है। वह अनुभवमूलक पद्धति अथवा अनुभव प्रमाण पूर्वक विश्लेषित होता है। अमानवीयतापूर्ण जीवन की सीमा में क्षमता मनुष्य में पाई जाती है उसे रासायनिक प्रक्रिया का विश्लेषण होता है। चैतन्य प्रकृति, प्रकृति की अपेक्षा गुरु मूल्य है। अतिमानवीयतापूर्ण प्रवृतियों से मानवीयतापूर्ण एवं अमानवीयतापूर्ण प्रकृति का विश्लेषण होता है। मानवीयतापूर्ण जीवन में षड-विकार अथवा आवेश हैं। मानवीयता की सीमा में ही इनका गुणात्मक परिवर्तन होता है। जैसे
कामावेश शिष्टतापूर्ण लज्जा में,
क्रोधावेश धैर्य पूर्ण साहस में,
लोभावेश उदारता पूर्वक दया में,
मोहावेश अहर्तापूर्वक अपेक्षा में,
मदावेश सम्मानाभिव्यक्तिपूर्वक कृतज्ञता में, तथा
मत्सर्यावेश सह-अस्तित्व एवं अभय में प्रदर्शित होते हैं।
क्रोधावेश धैर्य पूर्ण साहस में,
लोभावेश उदारता पूर्वक दया में,
मोहावेश अहर्तापूर्वक अपेक्षा में,
मदावेश सम्मानाभिव्यक्तिपूर्वक कृतज्ञता में, तथा
मत्सर्यावेश सह-अस्तित्व एवं अभय में प्रदर्शित होते हैं।
शिक्षा एवं व्यवस्था का आद्यांत अभीष्ट उक्त परिवर्तन को प्रदान करना एवं आचरित करना ही है। जनाकांक्षा भी यही है। शिक्षा एवं व्यवस्था का संकल्प तथा जनाकांक्षा का योगफल ही सामाजिकता है। सामाजिकता ही मनुष्य को या प्रत्येक मनुष्य को स्वभाव गति में प्रतिष्ठित करती है, जो क्रम से संस्कृति, सभ्यता, विधि एवं व्यवस्था है। आवेश ऐसी ही मनुष्य में
अस्थिरता,
अस्थिरता ही सशंकता,
सशंकता ही अविश्वास,
अविश्वास ही भय व आतंक,
भय व आतंक ही राग तथा संग्रह प्रवृत्ति,
राग एवं संग्रह प्रवृत्ति ही दीनता-हीनता-क्रूरता,
दीनता-हीनता-क्रूरता ही अमानवीयता,
अमानवीयता ही असामाजिकता एवं
असामाजिक ही आवेश है।
अस्थिरता ही सशंकता,
सशंकता ही अविश्वास,
अविश्वास ही भय व आतंक,
भय व आतंक ही राग तथा संग्रह प्रवृत्ति,
राग एवं संग्रह प्रवृत्ति ही दीनता-हीनता-क्रूरता,
दीनता-हीनता-क्रूरता ही अमानवीयता,
अमानवीयता ही असामाजिकता एवं
असामाजिक ही आवेश है।
प्रत्येक मनुष्य का
• आवेश गति रहित एवं
• स्वभाव गति
सहित जीवन ही अभीष्ट है।
• आवेश गति रहित एवं
• स्वभाव गति
सहित जीवन ही अभीष्ट है।
इसी में, से, के लिए पांचों स्थितियों में कार्यक्रम सफल होता है, अन्यथा में, असफल है।
अत्यासा, आलस्य, प्रमाद, अज्ञान, शोषण, आक्रमण एवं अपहरण पूर्वक ही मनुष्य परस्पर आतंकित एवं सशंकित सशंकित होता है। फलत:, अभावग्रस्त होता है। अर्थात, भाव में अभाव प्रतीत होता है। उक्त सभी अनावश्यककीय प्रवृत्ति व क्रियाकलाप अभाव द्योतक हैं, न कि भाव के।
अत्यासा, आलस्य, प्रमाद, अज्ञान, शोषण, आक्रमण एवं अपहरण पूर्वक ही मनुष्य परस्पर आतंकित एवं सशंकित सशंकित होता है। फलत:, अभावग्रस्त होता है। अर्थात, भाव में अभाव प्रतीत होता है। उक्त सभी अनावश्यककीय प्रवृत्ति व क्रियाकलाप अभाव द्योतक हैं, न कि भाव के।
अत्यासा विवेचना योग्यता के अभाव में,
आलस्य वस्तु मूल्यानुभूति योग्यता के अभाव में,
प्रमाद व्यवहार मूल्यानुभूति योग्य क्षमता के अभाव में,
अज्ञान शिक्षा एवं व्यवस्था में पूर्ण क्षमता के अभाव में
शोषण जागृति के मूल्यांकन योग्यता क्षमता के अभाव में,
आक्रमण सह-अस्तित्व की मौलिकता का अनुभव करने योग्य क्षमता के अभाव में एवं
अपहरण व्यक्तित्व एवं प्रतिभा के संतुलन के अभाव में होता है।
इसका निराकरण केवल मानवीय संस्कृति, सभ्यता, विधि एवं व्यवस्था का पांचों स्थितियों में संपन्न होना ही है। अमानवीयता की सीमा में अर्थ के सदुपयोग एवं सुरक्षा की संभावना नहीं है। यही आवेश का मूल कारण है। मानवीयता ही इसका पूर्ण समाधान है। इसलिए
भयवशपूर्वक ही मनुष्य संग्रह में, से, के लिए प्रवृत्त होता है।
आलस्य वस्तु मूल्यानुभूति योग्यता के अभाव में,
प्रमाद व्यवहार मूल्यानुभूति योग्य क्षमता के अभाव में,
अज्ञान शिक्षा एवं व्यवस्था में पूर्ण क्षमता के अभाव में
शोषण जागृति के मूल्यांकन योग्यता क्षमता के अभाव में,
आक्रमण सह-अस्तित्व की मौलिकता का अनुभव करने योग्य क्षमता के अभाव में एवं
अपहरण व्यक्तित्व एवं प्रतिभा के संतुलन के अभाव में होता है।
इसका निराकरण केवल मानवीय संस्कृति, सभ्यता, विधि एवं व्यवस्था का पांचों स्थितियों में संपन्न होना ही है। अमानवीयता की सीमा में अर्थ के सदुपयोग एवं सुरक्षा की संभावना नहीं है। यही आवेश का मूल कारण है। मानवीयता ही इसका पूर्ण समाधान है। इसलिए
भयवशपूर्वक ही मनुष्य संग्रह में, से, के लिए प्रवृत्त होता है।
संग्रह सुविधा में,
सुविधा विलासिता में,
विलासिता अतिभोग में,
अतिभोग शोषण एवं हिंसा में,
शोषण एवं हिंसा भय में
रूपांतरित होती हैं।
सुविधा विलासिता में,
विलासिता अतिभोग में,
अतिभोग शोषण एवं हिंसा में,
शोषण एवं हिंसा भय में
रूपांतरित होती हैं।
यही क्रम से अतिभोग में प्रवृत्त होने का कारण है। मनुष्य दबाव एवं तनाव में रहना ही चाहता है। उसी के भुलावे के लिए मनुष्य विलासिता में प्रवृत्त होता है। यही अंततोगत्वा अतिभोग में परिणित होता है। यह स्वयं में पीड़ा होने के कारण परधन, परनारी/ परपुरुष एवं परपीड़ा में प्रवृत्त होता है। फलत: आतंक उत्पन्न होता है, जो पीड़ा है। पीड़ा मनुष्य को स्वीकार्य नहीं है। स्वयं में स्वयं की पीड़ा स्वयं की वंचना अथवा अक्षमता है। हीनता एवं क्रूरता वंचना स्ववंचना पूर्वक पीड़ा दायक होती है। दीनता अक्षमता का द्योतक है। पीड़ा मनुष्य की वांछित उपलब्धि नहीं है। प्रत्येक मनुष्य पीड़ा से मुक्त होना चाहता है। यह सत्यता जागृति की संभावना को स्पष्ट करती है। मनुष्य में प्रतिभा एवं व्यक्तित्व की विषमता ही पीड़ा है। जो स्ववंचना की द्योतक है। अस्वीकृत व्यवहार एवं उत्पादन ही प्रतिभा एवं व्यक्तित्व की विषमता है। यही अंतर्विरोध है। अंतर्विरोध ही पीड़ा है। पीड़ा ही द्रोह विद्रोह और अपराध का कारण है। जिज्ञासा ही जागृति का कारण है। स्वयं में पीड़ित हुए बिना अनेकों पीड़ित करना संभव नहीं है। इसके अतिरिक्त यदि पीड़ा है तो वह घटनात्मक होती है। जिसमें अज्ञान का होना आवश्यक है। पीड़ा आवेश है ही। आवेश से मुक्ति पाने का एकमात्र उपाय मानवीयता पूर्ण जीवन ही है।
मानव अभ्यास दर्शन, अध्याय 45 - आवेश मनुष्य की स्वभाव गति नहीं है।
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