मानव कर्म दर्शन - ए नागराज
अध्याय – 1 (भाग-3)
प्राकृतिक संतुलन,
सामाजिक संतुलन
एवं बौद्घिक संतुलन योग्य नियम
ही आवश्यकीय नियम है। यही
‘‘नियम-त्रय’’ है।
आवश्यकीय
नियमों का
ज्ञान व
अनुसरण निर्णय
उसके सदुपयोग
से, सदुपयोग
का निर्णय
विकास एवं
जागृति से,
विकास एवं
जागृति का
निर्णय बौद्घिक,
सामाजिक एवं
प्राकृतिक नियमों
के समझ
व पालन से स्पष्ट
होता है।
मनुष्य के
लिए अपने
विकास एवं
जागृति क्रम
श्रंखला को
अक्षुण्ण बनाये
रखने के
लिये आवश्यकीय
नियमों का
अनुसरण एक
अनिवार्य प्रक्रिया
है। यही
मानव-जीवन,
जीवनी क्रम,
जीवन के
कार्यक्रम का
प्रत्यक्ष रूप
भी है।
इसलिये -
सांस्कृतिक
मूल्यों का
अवगाहन एवं
निर्वहन व
मूल्यांकन ही
मानवकृत वातावरण
है।
मनुष्य
में समाहित
संस्कार ही
उसके स्वभाव
को अभिव्यक्त
करता है।
सुसंस्कार-पूत
पूर्वक मानव
संस्कृति का
उद्गम होता
है। यह
तब तक
संस्कार पूत
होता ही
रहेगा जब
तक वह
पूर्ण न
हो जाये।
Ø संस्कार पूर्णता
का प्रत्यक्ष
रूप अतिमानवीयता
पूर्ण स्वभाव
ही है।
Ø सुसंस्कृति सम्पन्नता का
प्रत्यक्ष रूप
मानवीयतापूर्ण स्वभाव
है।
Ø विकृत संस्कृति
का प्रत्यक्ष
रूप ही
अमानवीयता है।
सामाजिकता
पूर्ण संस्कृति
मानवीयता पूर्वक
स्पष्ट होती
है। ऐसी
मानवीयता के
पोषण के
लिये ही
संस्कृति, सभ्यता,
विधि और
व्यवस्था है।
ये
परस्पर पूरक
हैं क्योंकि
·
संस्कृति का पोषण
सभ्यता,
·
सभ्यता का पोषण
विधि,
·
विधि का पोषण
व्यवस्था,
·
व्यवस्था का पोषण
संस्कृति करती
है।
जाग्रत
परम्परा में
मानवीयतापूर्ण सांस्कृतिक
कार्यक्रम संस्कारों
का ही
प्रदर्शन है
क्योंकि जाग्रत
परम्परा में
संस्कार विहीन
मनुष्य नहीं
है। जबकि
भ्रमित मानव
परम्पराएं समुदायों
के रूप
में गण्य
हैं। यही
सम्पूर्ण समस्या
का कारण
है। समस्याएं
संस्कार का
प्रमाण नहीं
है, क्योंकि
सभी समस्याएं
समाधानित होते
ही हैं।
·
चित्रण व विचार ही क्रमश:
कला एवं
उपादेयता को
प्रकट करता
है।
·
विचार संस्कार से
सम्बद्घ रहना
ही जागृति
है।
Ø मानवीयतापूर्ण संस्कार
ही सार्वभौम-संस्कृति का
द्योतक है।
Ø इससे निम्न
अर्थात् अमानवीय
संस्कृति का
सार्वभौम होना
संभव ही
नहीं है।
इसलिये-
सामाजिक नियमों के पालन
से ही
स्वस्थ संस्कृति और सभ्यता का
उदय होता
है। फलत:
समाज की
अखण्डता एवं
उसकी अक्षुण्णता सिद्घ होती है।
मानव
ही ऐसी
इकाई है
जो केवल
अपनी ही
सुख-सुविधा
से संतृप्त
नहीं है
अपितु व्यवहार
से संतृप्त
होता है।
इसलिए प्रत्येक
व्यक्ति प्राप्त
सुविधा की
सुरक्षा एवं
सदुपयोग चाहता
है, जो
अनिवार्य है।
इस प्रकार
मनुष्य सामाजिक
व न्यायिक इकाई सिद्घ
हुआ है
या सिद्घ
होने के
लिये बाध्य
है।
Ø सामाजिकता बौद्घिकता एवं भौतिकता
का संयुक्त
रूप है।
Ø बौद्घिक क्षमता
के नियंत्रण में भौतिकता है
क्योंकि विचार
के अभाव
में उत्पादन
व व्यवहार सिद्घ नहीं
होता है।
·
प्रियाप्रिय,
हिताहित, लाभालाभ
दृष्टियाँ भौतिक
व्यवसाय तथा
उसके उपयोग
में प्रयुक्त
हुई हैं।
·
न्यायान्याय,
धर्माधर्म, सत्यासत्य
दृष्टियाँ व्यवहार तथा आचरण में
निर्णायक सिद्घ
हुई हैं।
Ø सद्शास्त्राध्ययन के
बिना सत्य
कामना,
Ø सत्य कामना
के बिना
सत्य-प्रेम,
Ø सत्य-प्रेम
के बिना
सत्य-निष्ठा,
Ø सत्य-निष्ठा
के बिना
सत्य-प्रतिष्ठा,
Ø सत्य-प्रतिष्ठा
के बिना
सत्य-प्रतीति,
Ø सत्य-प्रतीति
के बिना
सत्यानुभव,
Ø सत्यानुभव के
बिना सद्
शास्त्र का
उद्घाटन तथा
Ø सद्शास्त्र के
उद्घाटन के
बिना सद्शास्त्र
का अध्ययन
पूर्ण और
सार्थक नहीं
है।
सत्य
प्रतीति में
ही संयत
आचरण एवं
व्यवहार में
निष्ठा पाई
जाती है।
संयत
आचरण व
व्यवहार के
बिना स्व-पर के
लिये न्याय
सम्मत लाभ
व हित होना संभव
नहीं है।
न्याय
सम्मत लाभ
और हित
ही समृद्घि
है।
अन्याय
पूर्ण लाभ
और हित
ही दुख
और समस्या
के रूप
में प्रत्यक्ष
है।
·
योग-जन्य बुद्घिपूर्ण-जीवन ही अतिमानवीयता
के रूप
में,
·
सुकर्म-जन्य बुद्घि-पूर्वक यापन
किया गया
जीवन मानवीयता
के रूप
में तथा
·
दुष्कर्म जन्य-बुद्घि
सहित किया
गया जीवन-यापन अमानवीयता
के रूप
में प्रत्यक्ष
है।
सद्व्यय
के बिना
सत्य-प्रेम,
सद्-प्रवृत्ति,
सत्कर्म, सुख,
शाँति, संतोष
एवं आनन्द
नहीं है,
इसलिये -
मनुष्य
सत्यज्ञान, सत्यता
के दर्शन-योग्य अध्ययन,
कर्म व
आचरण करने
के लिये
उन्मुख है,
क्योंकि इसकी
संभावना एवं
आवश्यकता है,
जो विधिवत्
जीवन है।
Ø मानवीयतापूर्ण अथवा
मानवीयता में
प्रत्येक कार्यक्रम
विधि और
व्यवस्था है।
Ø उसका आचरण
ही सभ्यता
और उस
परम्परा का
निर्वाह ही
संस्कृति है।
मनुष्य
में दुख,
अशान्ति, असंतोष ही
द्वन्द्व है और यही
द्वन्द्व का फल
भी है।
भ्रमित
मनुष्य के
परस्पर द्वन्द्व (संग्रह,
सुविधा, भोग
में आसक्ति)
एवं प्रतिद्वन्द्व वश
ही समृद्घि
के लिए
प्रयत्नशील मानव
भय और
भ्रांति से
ग्रस्त हो
जाता है,
जैसे मनोहर
वन में
मानव क्रूर
वन्य प्राणियों
के स्मरण
मात्र से
ही भयाक्रांत
अथवा भय
दृष्टा हो
जाता है।
मनुष्य
के लिये
अशेष परिस्थितियाँ
उनसे सम्पादित कर्म,
उपासना, ज्ञान-योग्य-क्षमता से
ही निर्मित
होती हैं।
यही परिस्थितियाँ उचित अनुचित
वातावरण का
रूप धारण
करती हैं।
इसलिये-
जागृत-मनुष्य का आचरण
एवं व्यवहार ही व्यवस्था है जो
शांति का
कारण है।
जहाँ
तक मनुष्य
का सम्पर्क
है वहाँ
तक दायित्व
का अभाव
नहीं है।
संबंध
में दायित्व
का निर्वाह
होता ही
है।
Ø संबंध में
दायित्व प्रधान
कर्त्तव्य और
Ø संपर्क में
कर्त्तव्य प्रधान
दायित्व वर्तमान
है।
यही
सामाजिक है।
सर्व
सम्मति योग्य
शान्ति, समाधान
एवं समृद्घि
के कारण
बोध सहित
विधिवत् व्यवस्था
प्रक्रिया द्वारा
शुभ वातावरण
का निर्माण
होता है।
ऐसी स्थिति
में सद्-
शास्त्र सेवन एवं
अभ्यास सर्व
सुलभ हो
जाता है।
·
अखण्ड समाजिकता को
प्रतिपादित करने
योग्य शास्त्र व विचार,
·
प्रचार-सम्पन्न सामाजिक कार्यक्रम,
·
परिष्कृत विधि-व्यवस्था
और
·
विधान सम्पन्न व्यवस्था,
·
आचरण सम्पन्न व्यक्ति,
·
उसके प्रोत्साहन योग्य
परिवार ही
·
अखण्ड समाज का
प्रत्यक्ष रूप
है।
यह
मानव की
चिर आकाँक्षा
और प्रमाण
है। यही
उनकी तृष्णा
है और
इसकी संभावना
भी है, इसलिये-
मनुष्य
को जीवन
की प्रत्येक
स्थिति में
शान्ति एवं
स्थिरता की
आवश्यकता है।
सद्-शास्त्र सेवन,
मनन एवं
आचरण से
व्यक्ति तथा
परिवार में
शान्ति तथा
स्थिरता पाई
जाती है।
Ø समग्रता के
प्रति निर्भमता को प्रदान करने,
Ø जागृति की
दिशा तथा
क्रम को
स्पष्ट करने,
Ø मानवीय मूल्यों
को सार्वभौमिक रूप में निर्धारित
करने,
Ø मानवीयता से
अतिमानवीयता के
लिये समुचित
शिक्षा प्रदान
करने योग्यता-क्षमता सम्पन्न शास्त्र तथा शिक्षा
प्रणाली ही
शान्ति एवं
स्थिरतापूर्ण जीवन
को प्रत्येक
स्तर (पांचों) में
प्रस्थापित करने
में समर्थ
है।
इसके
बिना मानव
जीवन में
स्थिरता एवं
शान्ति संभव
नहीं है,
जो स्पष्ट
है।
मनुष्य
सुख, शान्ति,
संतोष और
उसकी स्थिरता
के उपलक्ष्य
(उपाय सहित
लक्ष्य) की
और गतिशीलता
में ही
समस्त कर्मों
(बौद्घिक,
सामाजिक तथा
प्राकृतिक) को
करना चाहता
है।
मनुष्य
कर्म करते
समय में
स्वतंत्र होने
के कारण
कर्मफलों से
ही सुखी
एवं दुखी
होता है,
जो प्रत्यक्ष
है।
·
मानवीयता की सीमा
में किया
गया बौद्घिक,
सामाजिक तथा
प्राकृतिक क्षेत्र
में सम्पूर्ण
कर्म सुखदायी
है।
·
यही अमानवीयता की
सीमा में
दुखदायी है,
जो प्रत्यक्ष
है।
इस
वर्तमान में
मनुष्य चार
प्रकार से
गण्य है।
Ø पुण्यात्मा
Ø पापात्मा
Ø सुखी
Ø दुखी
मानव
की पाँचों
स्थितियों (व्यक्ति,
परिवार, समाज,
राष्ट्र व
अन्तर्राष्ट्र) में
पुण्यात्मा, पापात्मा,
सुखी एवं
दुखी के
साथ व्यवहार
करने की
नीति-रीति
में अपनी-अपनी विशेषतायें
दृष्टव्य हैं।
यथाक्रम से
·
व्यक्ति की सीमा
में पूज्य,
तटस्थ, संतोष
एवं दया
भाव;
·
परिवार की सीमा
में गौरव,
उपेक्षा, सहकारिता
एवं सेवा
भाव;
·
समाज की सीमा
में पुरस्कार,
परिमार्जन, सहयोग
और सहकार
भाव;
·
राष्ट्र की सीमा
में सम्मान,
दण्ड (सुधार),
आश्वासन एवं
सहयोग भाव;
·
अन्तर्राष्ट्रीय सीमा में
संरक्षण, उद्धार,
संवर्धन और
परिष्करण भाव
पूर्ण रीति-नीति पद्घति,
विधि-विधान
व्यवहार- आचरण-सम्पन्न जीवन
ही सफल
अन्यथा असफल
है। इसलिये
यथा
पुण्यात्मा पापात्मा सुखी दुखी
व्यक्ति पूज्य तटस्थ संतोष दयाभाव
परिवार गौरव उपेक्षा सहकारिता सेवाभाव
समाज पुरस्कार परिमार्जन सहयोग सहकार भाव
राष्ट्र सम्मान दण्ड(सुधार) आश्वासन सहयोग भाव
अन्तर्राष्ट्र संरक्षण उद्घार संवर्धन परिष्करण भाव
अहंकार,
ईर्ष्या, द्वेष
और अभिमान
सहित व्यक्ति,
कुटुम्ब, समाज,
राष्ट्र एवं
अन्तर्राष्ट्र की
नीति एवं
तदनुकूल किये
गये कर्म-उपासना, व्यवहार-व्यवस्था, प्रचार-प्रयोग-प्रदर्शन
एवं शिक्षा
असामाजिक सिद्घ
हुई है।
समाज
एवं सामाजिकता
के बिना
मनुष्य जीवन
में कोई
मूल्य तथा
कार्यक्रम सिद्घ
नहीं होता
है।
कार्यक्रम
विहीन मनुष्य
नहीं है।
कार्यक्रम
ही कर्म
है।
कर्म
मात्र ह्रास
या विकास
एवं जागृति
के लिये
सहायक है।
ह्रास
या विकास
की ओर
गतिशील न
हो ऐसी
कोई इकाई
जड़-चैतन्यात्मक
प्रकृति में
नहीं है।
विज्ञान
और विवेक
ही जागृति
की पूर्णता
के लिये
एक मात्र
आधार है।
ऐसी क्षमता
से सम्पन्न
होने के
लिये ही
परिष्कृत कर्मों
में प्रवर्तन
है। यही
मानव की
पाँचों
स्थितियों
एवं चारों
आयामों में
वर्तनीय है।
Ø यथार्थ दर्शन-विहीन अन्तर्राष्ट्र;
Ø समाधान पूर्ण
कार्यक्रम एवं
कोष-विहीन
(राष्ट्र) व्यवस्था;
Ø धर्म-पतित,
निश्चय-विहीन
समाज;
Ø सच्चरित्र-रहित
कुटुम्ब;
सदाचरण
से रिक्त
व्यक्ति सतत
चिन्तातुर हैं।
धर्म
का प्रत्यक्ष
रूप ही
सामाजिकता है।
यही संस्कृति
व सभ्यता है।
मनुष्य
की परस्परता
में निर्विषमता
के लिये
ही संस्कार,
संस्कृति व
सभ्यता की
अनिवार्यता है।
यही उपादेयता
भी है।
Ø समग्रता के
प्रति रहस्यविहीन
दर्शन को
धारण करने
में असमर्थ
अन्तर्राष्ट्र,
Ø सत्यता के
संरक्षण में
एवं संवर्धन
प्रक्रिया में
असमर्थ (राष्ट्र)
व्यवस्था,
Ø सत्यता का
प्रचार करने
में असमर्थ
समाज,
Ø सत्यता का
अनुसरण करने
में असमर्थ
परिवार,
Ø सत्यतापूर्ण आचरण
करने में
असमर्थ व्यक्ति
घोर क्लेश
से पीड़ित
है।
अनावश्यकता
का त्यागहीन
जीवन, आधार
व निश्चय विहीन व्यवस्था-विधि, जागृति
विहीन कर्म
ही मानव
कुल को
व्याकुल करते
हैं। ये
सब मानवीयता
की सीमा
में ही
परिमार्जित एवं
समाधानित होते
हैं।
अवकाश
(सम्भावना) से
अधिक आवश्यकताओं
को अपनाने
से ही
समस्त प्रकार
की दुष्प्रवृत्तियाँ क्रियाशील होती हैं।
ये प्रधानत:
शोषण के
रूप में
होती है
जो स्व-पर हानिकारक
होती है।
तन,
मन, धन
रूपी साधन
ही अवकाश
है।
असंयत
आवश्यकता के
लिये साधन
का कम
हो जाना,
संयत आवश्यकताओं
में साधन
का अधिक
हो जाना
स्वभाविक है।
असंयत आवश्यकता
में अपव्यय
समाहित है।
इसलिए -
मानव
के लिये
मानवीयता ही
संयमता का
फल है।
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