Sunday, May 31, 2020

मानव कर्म दर्शन - ए नागराज अध्याय – 1 (भाग-4)


मानव कर्म दर्शन - ए नागराज


अध्याय – 1 (भाग-4)



मनुष्य में रूप, बल, बुद्घि, पद, धन, कर्म, उपासना, आवश्यकता, अवसर एवं अवकाश समीचीन है। इसलिये भी-
क्रिया में आने वाले आश्वासन, योग्यता से अधिक अधिकार, सिद्घान्त विहीन शास्त्र, आधार विहीन-विधि, दिशा विहीन आचरण ये सब क्लेश परम्परा के कारण है।
विधि के आधार तीन प्रकार से गण्य हैं
Ø  सत्याधार
Ø  कर्माधार और
Ø  विषयाधार।
सत्याधार को स्पष्ट करने योग्य शास्त्र के आधार पर जो विधि-विधान हैं उससे मनुष्य को सुख, शान्ति, संतोष एवं आनन्द की उपलब्धि है, जो मानवीयता तथा अतिमानवीयता की सीमा में सफल है।
सत्यता पर आधारित विधि-विधान एवं नीति ही अन्तर्राष्ट्रीयता की एकात्मकता है। यही परस्पर राष्ट्रों की एक सूत्रता सह-अस्तित्व पूर्ण है। यही वर्ग एवं राज्य विहीन मानव-जीवन का प्रत्यक्ष रूप है।
कर्माधार पर निर्धारित विधि-विधान सम्पन्न शासन-प्रक्रिया में स्व-पर लाभालाभ होता है। यह वर्ग भावना से मुक्त नहीं है।
विषयाधार पर आधारित विधि-विधान सम्पन्न शासन प्रक्रिया में स्व-पर हानि होती है। इसमें समाज की कोई व्याख्या नहीं है। समुदाय ही इसकी सीमा है।
विवेकपूर्ण विचार, उपासना-इच्छा सहित किया गया प्रत्येक कर्म सभी स्तर पर श्रेयस्कर होता है।
·         दर्शन-क्षमता जागृति पर;
·         जागृति, आकाँक्षा एवं आचरण पर;
·         आकाँक्षा एवं आचरण शिक्षा एवं अध्ययन पर;
·         शिक्षा एवं अध्ययन व्यवस्था पर;
·         व्यवस्था, दर्शन क्षमता के आधार पर होना पाया जाता है।
Ø  ज्ञानानुकूल यत्न,
Ø  यत्नानुकूल कार्य,
Ø  कार्यानुकूल फल-परिणाम,
Ø  फल-परिणाम के अनुकूल अनुभव,
Ø  अनुभवानुकूल ही ज्ञान स्पष्ट हुआ है, जो प्रसिद्घ है।
तीन प्रकार के कर्म-फलों को पाने के लिये ही मनुष्य आद्यान्त कार्य करता है।
स्वार्थ, परार्थ, परमार्थ के लक्ष्य भेद से सम्पूर्ण कर्म सम्पन्न होते हैं। इनके मिश्रण से भी कर्म सम्पन्न होता है। यथा-
Ø  स्वार्थ,
Ø  स्वार्थ-परार्थ,
Ø  परार्थ,
Ø  परार्थ-परमार्थ,
Ø  परमार्थ,
Ø  परमार्थ-परार्थ और
Ø  परमार्थ-स्वार्थ का प्रभेद प्रत्यक्ष है।
यही मनुष्य की विषम, विषम-सम, सम, सम-मध्यस्थ और मध्यस्थ बुद्घि का परिचायक है।
·         मध्यस्थ-बुद्घि योग में,
·         सम-बुद्घि सत्कर्म में,
·         विषम-बुद्घि दुष्कर्म में
प्रवृत्त और प्रसक्त पायी जाती है। यही मानव में कर्म वैविध्यता का कारण है। ये सम्पूर्ण वैविध्यताएं मानवीयता की सीमा में सविरोधी स्थिति से मुक्त हो जाती है। इसका प्रत्यक्ष साक्ष्य ‘‘नियम-त्रय’’ का आचरण ही है।
प्रत्येक योग और वियोग में मूल्यों की प्रतीति एवं नियोजन पाया जाता है।
संयोग से भाव, भाव से क्रिया, क्रिया से संयोग यही सापेक्षता एवं व्यवहार-क्रम-चक्र है।
सामाजिक मूल्यों का निर्धारण एवं निर्वाह करने की क्षमता ने ही सामाजिकता पूर्ण असामाजिकता सहित व्यक्तित्व को स्पष्ट किया है। यही मनुष्य के ह्रास और विकास का परिचायक है।
उच्च और नीच प्रकार से परस्पर में भाव क्रियायें सम्पन्न होती हैं जिनसे ही उनके विकास का परिचय होता है।
उच्च भावपूर्ण परिवार, सम-मध्यस्थ-संयोगपूर्ण समाज, मध्यस्थ-सम-योगपूर्ण व्यवस्थातन्त्र एवं व्यवहार ही सर्वमंगल कार्यक्रम है।
निम्न (नीच) भाव तथा समस्याग्रस्त कुटुम्ब, विषय-संयोग सहित समाज तथा सामाजिक कार्यक्रम, न्याय के अभाव से ग्रस्त शासन की व्यवस्था, ये सब असंतुलन क्लेश के कारण हैं।
स्पष्ट दर्शन क्षमता के बिना सत्कर्म का निर्धारण नहीं है। यही क्षमता सम-विषम-मध्यस्थ, क्रिया-प्रक्रिया, प्रयोजन का निर्णय करती है। साथ ही आचरण, व्यवहार, व्यवस्था एवं शिक्षा प्रणाली में पूर्णता स्थापित करती है।
व्यवहार के लिये विवेक और विज्ञान, उत्पादन के लिये विज्ञानपूर्ण ज्ञान अनिवार्य है। ऐसा ज्ञान प्रत्येक जागृत व्यक्ति की क्षमता आवश्यकता के अनुसार प्रकट एवं व्यवहृत होता हुआ पाया जाता है।
व्यवहारिक मूल्यों का निर्धारण विवेचना पूर्वक ही होता है।
विवेचनायें आत्मा के अमरत्व, शरीर के नशवरत्व एवं व्यवहार नियम के अनुसार है।
व्यवहारिक मूल्य मानवीयता के अर्थ में सार्थक होते हैं। इसके आधार पर नियम-त्रय (बौद्घिक, सामाजिक एवं प्राकृतिक) सिद्घ हुई है।
मनुष्य की परस्परता में किया गया आचरण एवं निर्वाह सह-अस्तित्व विधि से सार्थक तथा असह-अस्तित्व विधि से असार्थक और समस्या है।
यथार्थ ज्ञान-क्षमता का प्रत्यक्ष रूप ही मानवीयतापूर्ण आचरण है।
समझने की क्षमता ही परस्परता में ज्ञान का उद्घाटन है।
समझने की क्षमता व्यंजनीयता है। इकाई की मूल व्यंजनीयता सत्ता में सम्पृक्तता ही है। यही सम्पृक्तता की अनुभूति ही पूर्ण व्यंजनीयता है। चैतन्य ईकाई की व्यंजनीय क्षमता में गुणात्मक परिमार्जन ही संस्कार है, यही दर्शन-क्षमता एवं अनुभव क्षमता है। परिमाण एवं सीमा का दर्शन, सत्य में अनुभव प्रसिद्घ है। व्यंजनीयता का क्षमता क्रम ही जागृतिक्रम को और जागृति को प्रकट करता है।
दर्शक दृश्य प्रकट है।
प्रकटन को प्रमाणित करने के लिये दर्शक का रहना आवश्यक है। दर्शक ही व्यंजनीय-क्षमता से प्रतिष्ठित है। इसलिये-
प्रकृति अनन्त इकाईयों का समूह है। यही दृश्य राशि है।
प्रत्येक दर्शक भी दूसरे दर्शक के लिए दृश्य है। प्रत्येक इकाई अपने जागृति के अनुरूप दर्शक है।
मानव जीवन के आद्यान्त कार्यक्रम एवं आचार तीन प्रकार से गण्यहै-
(1) सत्याचार,
(2) लोकाचार और
(3) विषयाचार।
ये क्रम से उत्तम, मध्यम एवं अधम की परिगणना में है।
मानवीयतापूर्ण आचरण ही अवधारणा का प्रमाण है। अवधारणा ही  प्रवृत्ति निवृत्ति में प्रमाणित होती है। प्रवृत्ति निवृत्ति ही संवेग विवेक, संवेग विवेक ही अनुगमन अनुसरण, अनुगमन अनुसरण ही उद्घाटन, उद्घाटन ही प्रकटन, प्रकटन ही प्रत्यक्ष, प्रत्यक्ष ही प्रमाण, प्रमाण ही अनुभूति, अनुभूति ही क्षमता योग्यता और पात्रता, क्षमता योग्यता पात्रता ही स्थितिवत्ता, स्थितिवत्ता ही विभव, विभव ही वैभव और वैभव ही आचरण है।
दृष्टा पद ही दर्शन क्षमता का प्रतिरूप है और व्यवहार उसके अनुरूप है जो प्रसिद्घ है। विचार के अभाव में शरीर द्वारा कोई कार्य-व्यवहार सिद्घ नहीं होता या प्रत्यक्ष नहीं होता। इससे स्पष्ट हो जाता है कि शरीर द्वारा किए जाने वाले संपूर्ण क्रिया-कलापों के मूल में विचार ही है। शरीर विचार नहीं है। यह विचार को प्रसारित करने का माध्यम है। इस निष्कर्ष से विचार, शरीर से अतिरिक्त है और यही चैतन्य है।
वैचारिक क्षमता मानव की पाँचों स्थितियों में स्थित है।
वैचारिक क्षमता से अधिक या कम मानव नहीं हैं।
इसीलिए सर्वमानव क्षमता में समान है।
वैचारिक क्षमता के परिमार्जन हेतु सत्मार्ग एवं योगाभ्यास प्रसिद्घ है। यही संस्कार में गुणात्मक परिवर्तन भी है। पुन: यही वैचारिक क्षमता है। यह क्रम मानवीयता तथा अतिमानवीयतापूर्ण आचरणों से सम्पन्न होते तक परिपूर्ण व्यवस्था है। यह ‘‘नियम-त्रय’’ के पालन अनुसरण एवं अनुशीलनपूर्वक सफल है अन्यथा असफल है।
योग्याभ्यास - मिलन का अभ्यास। मिलन के अनन्तर स्वीकृति जीवन जागृति के रूप में, विकृति अमानवीयता के रूप में  दृष्टव्य है।
प्रत्येक मनुष्य प्रबुद्घता के लिये प्रयासरत है। प्रबुद्घता का प्रत्यक्ष रूप ही आचरण है। यह मानवीयता तथा अतिमानवीयता की सीमा में पूर्ण  अन्यथा अपूर्ण है।
जीवन का कार्यक्रम ही कर्म है। यही आचरण है।
मनुष्य में आचरण का स्तर सात प्रकार से गण्य हैं
(1) प्राण
(2) जीव
(3) काम
(4) लाभ
(5) कला
(6) प्रदर्शन
(7) सहज।
इनमें से प्राण, जीव, काम, लाभ के लिये आचरण पशुमानव और राक्षसमानव में प्रत्यक्ष है जो उनका स्वभाव है।
समृद्घि, कला और बोध के लिये आचरण मानवीयतापूर्ण मनुष्य में पाया जाता है।
बोध एवं सहजता के लिये आचरण दिव्य मानवीयतापूर्ण मनुष्य में प्रत्यक्ष है, जो उनका स्वभाव है।
मनुष्य के लिए मानवीयता एवं अतिमानवीयतापूर्ण आचरण ही नितांत उपयोगी एवं आवश्यक है, अन्य अनुपयोगी एवं अनावश्यक सिद्घ हुआ है।
मानव की पाँचों स्थितियाँ परस्पर पूरक हैं। इनकी एकसूत्रता ही अखण्ड सामाजिकता है। यह ‘‘नियम-त्रय’’ पालन का सर्व सामान्य होने से है।
 प्रत्येक आविष्कार एवं अनुसंधान व्यक्ति मूलक उद्घाटन है। यह शिक्षा एवं प्रचार के माध्यम से सर्व सुलभ हो जाता है। यही सर्व-सामान्यीकरण प्रक्रिया है।
जिसका विभव एवं वैभव है उसी का आविष्कार है क्योंकि उसके पहले उसका स्पष्ट ज्ञान मनुष्य कोटि में था ही नहीं। इसलिए, उस समय में यह आविष्कार है।
अस्तित्व का प्रकटन ही आविष्कार है। आविष्कार की सामान्यीकरण प्रक्रिया ही शिक्षा है।
मनुष्य के लिये जितना उन्नतावकाश है उतना ही पतन के लिये भी अवकाश है। पतनोन्मुखी क्रियाकलाप ही अपराध या गलतियाँ हैं। इसी का प्रत्यक्ष रूप ही दु:, अशान्ति, असंतोष एवं असह-अस्तित्व है।
पतनोन्मुखी जीवन की श्रृंखला में अपराध के तीन कारण दृष्टव्य है :-
Ø  अभाव
Ø  अत्याशा एवं
Ø  अज्ञान।
इसके साथ ही राग, द्वेष, असत्य, अभिमान, भय, आलस्य, रोग और असफलता भी है।
इनका निराकरण क्रम से
Ø  अभाव को उत्पादन एवं अभ्यास से,
Ø  अत्याशा को विवेक से,
Ø  अज्ञान को ज्ञान से,
Ø  राग को विराग से, [समृद्धि सहज प्रमाण, असंग्रह।]
Ø  द्वेष को स्नेह से,
Ø  असत्य को सत्य से,
Ø  अभिमान को सरलता से,
Ø  भय को अभय से,
Ø  आलस्य को चेष्टा से,
Ø  असफलता को पराक्रम पुन: प्रयोग से,
Ø  रोग को औषधि आहार एवं विहार से,
समाधान एवं परिहार करने की व्यवस्था है जो मनुष्य के लिये एक अवसर है। यही आवश्यकता है।
वैज्ञानिक क्षमता का अपव्यय होना ही अर्थ का अनर्थ होना है।
विवेक का उपयोग हो जाना ही समाज की अखण्डता है जो स्वर्गीयता है।
विज्ञान (निपुणता, कुशलता) मनुष्य से कम विकसित का परिमाणीकरण पूर्वक नियंत्रण करने के लिये योग्यता है जो पूर्णतया उत्पादन क्षेत्र में उपयोगी सिद्घ हुआ है और आंशिक रूप से व्यवहार में। जबकि विवेक स्वयं के (मनुष्य के) विश्लेषण पूर्वक सामाजिक मूल्यों को स्पष्ट करता है।
व्यवहारिक मूल्य ही स्थिर मूल्य है।

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