Thursday, May 28, 2020

अभ्यास दर्शन 54 - योगाभ्यास जागृति के अर्थ में चरितार्थ होता है।



अभ्यास दर्शन
54-योगाभ्यास जागृति के अर्थ में चरितार्थ होता है।
यह (योगाभ्यास) मानवीयतापूर्ण जीवन के साथ आरंभ होता है,
योगाभ्यास
• श्रवण,
• मनन एवं
• निधिध्यासपूर्वक
अथवा
• धारणा,
• ध्यान एवं
• समाधिपूर्वक
चरितार्थ होता है।
जीवन चरितार्थता ही आचरणपूर्णता है।
योगाभ्यास
• शास्त्राध्ययन,
• उपदेश एवं
• स्वप्रेरणा का योगफल है।
इन सब में प्रामाणिकता का होना अनिवार्य है।
मानवीयतापूर्ण जीवन के अनन्तर
 वांछित वस्तु, देश एवं तत्व में चित्त-वृत्तियों का संयत होना पाया जाता है, यही धारणा है।
 धारणा पर पूर्णाधिकार के अनन्तर उसके सारभूत भाग में अथवा वांछित भाग में चित्त-वृत्ति का केन्द्रीभूत होना पाया जाता है जो ध्यान का द्योतक है।
 ध्येय के अर्थ मात्र में अर्थात् ध्येय के मूल्य में चित्त-वृत्ति एवं संकल्प का निमग्न होना ही समाधि है।
यही सत्तामयता में अनुभूति है। यही योगाभ्यास की सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है। इसी क्रम के अर्थ में श्रवण, मनन एवं निधिध्यास चरितार्थ होता है।
 श्रवण का तात्पर्य धारणा से है।
 मनन का तात्पर्य निष्ठा एवं ध्यान से है।
 निधिध्यास का तात्पर्य सहज निष्ठा एवं सहज समाधि है।
 सहज समाधि का तात्पर्य सत्ता में अनुभूतिमयता की निरंतरता या अक्षुण्णता है।
अक्षुण्णता प्रत्येक क्रियाकलाप एवं कार्यक्रम में भी स्थिर रहने के अर्थ में है। यही भ्रममुक्ति है। योगाभ्यास पूर्णतया सामाजिक एवं व्यवहारिक है। अव्यवहारिकता एवं असामाजिकता पूर्वक योगाभ्यास होना संभव नहीं है। मानवीयता के अनंतर ही अभ्युदय का उदय होता है। पूर्णता पर्यन्त इस उदय का अभाव नहीं हैं। उदय एवं अभ्यास का योगफल ही गुणात्मक परिवर्तन है जो योगाभ्यास पूर्वक चरितार्थ होता है।
व्यायाम, आसन व प्राणायाम योगाभ्यास के लिए सहायक हैं। शरीर का स्वेच्छानुरूप उपयोग करने, स्वस्थ रखने के लिए ये प्रक्रियाएं आवश्यक हैं।
 वातावरण अभ्यास के लिए सहज उपलब्धि है।
 कृत्रिम वातावरण ही अतिप्रभावशाली है जिसका निर्माण मानव ही करता है।
 कृत्रिम वातावरण मानवीयतापूर्ण या अमानवीयता भेद से दृष्टव्य है।
 कृत्रिम वातावरण के लिए शिक्षा एवं व्यवस्था प्रधान तत्व हैं।
 प्रकाशन, प्रदर्शन व प्रचार भी उसी के अनुरूप संपन्न होता है।
विपरीत वातावरण अर्थात् अमानवीय वातावरण में योगाभ्यास होने के लिए स्वयं मानवीयता से परिपूर्ण होना अनिवार्य हो जाता है। ऐसी स्थिति में यह साधनों में गण्य है। योगाभ्यास का पूर्व साधन या मूल साधन मानवीयता ही है। मानवीयतापूर्ण जीवन में वैचारिक समत्व स्वभावत: सिद्घ होता है जिसमें कायिक एवं वाचिक समत्व प्रत्यक्ष होता है।
स्थापित मूल्यानुभूति एवं उसकी निरंतरता ही योगाभ्यास की अर्थवत्ता है। चैतन्य प्रकृति में ही अनुभव योग्य क्षमता योगाभ्यासपूर्वक स्थापित होती है। मन, वृत्ति, चित्त, बुद्घि एवं आत्मा में ही अनुभव योग्य क्षमता जागृत होती है। ये सब चैतन्य इकाई में होने वाली अविभाज्य क्रियाएं हैं।
अनुभूति मूल्यों में, से, के लिए होती है। मन एवं वृत्ति के योग से उपयोगिता मूल्यानुभूति, वृत्ति और चित्त के योग से उपयोगिता एवं कला मूल्यानुभूति, चित्त और बुद्घि के योग से शिष्ट मूल्यानुभूति, बुद्घि व आत्मा के योग से स्थापित मूल्यानुभूति होती है।
फलत: सत्तामयता में अनुभूति योग्य क्षमता सिद्घ होती है। यही सत्तामयता में संपृक्तता की अनुभूति है जो ब्रह्मानुभूति है। यह आत्मा में होने वाली विशेषानुभूति है। व्यापकता एवं विशालता में ही अनुभूतियाँ हैं।


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