Sunday, May 31, 2020

मानव कर्म दर्शन - ए नागराज अध्याय – 1 (भाग-2)

मानव कर्म दर्शन - ए नागराज

अध्याय – 1 (भाग-2)





समस्त इच्छाओं के सात भेद हैं :-

(1) मोक्ष के लिए अर्थ [उत्तमोत्तम]
(2) धर्म के लिए अर्थ [मध्यमोत्तम]
(3) काम के लिए अर्थ [उत्तम]
(4) अर्थ के लिए अर्थ [मध्यम]
(5) अर्थ के लिए काम [अधम-मध्यम,]
(6) अर्थ के लिए धर्म तथा [अधम]
(7) अर्थ के लिए मोक्ष। [अधमाधम]
ये क्रम से सात उत्तमोत्तम, मध्यमोत्तम, उत्तम, मध्यम, अधम-मध्यम, अधम अधमाधम हैं।
Ø  इच्छा-भेद से अन्वेषण,
Ø  अन्वेषण-भेद से गम्यता,
Ø  गम्यता-भेद से अनुभव,
Ø  अनुभव-भेद से आकर्षण,
Ø  आकर्षण-भेद से मूल प्रवृत्ति,
Ø  मूल प्रवृत्ति भेद से आवश्यकता,
Ø  आवश्यकता भेद से अन्वेषण,
Ø  अन्वेषण भेद से इच्छा भेद है।
तीन प्रकार की अन्वेषण प्रवृत्तियाँ मनुष्य में पाई जाती हैं:-
·         सत्यान्वेषण
·         एषणान्वेषण
·         विषयान्वेषण।
विषयान्वेषण प्रवृत्तियाँ जीवों में भी दृष्टव्य हैं। शेष दो मनुष्य [पशु मानव-राक्षसमानव] में ही हैं। इसलिये विषयान्वेषण प्रवृत्तियाँ अपराध से मुक्त नहीं हैं।
विषयोपभोग की तीन अवस्थायें होती हैं:-
Ø  निमित्त विषयी (साधन के प्रति नगण्यता) [अलिप्त]
Ø  प्रमाद विषयी [ग्रस्त]
Ø  प्रमत्त विषयी [दग्ध]
ये क्रम से विषयों से अलिप्त, ग्रस्त एवं दग्ध पायी जाती हैं।
विषयों से अनासक्ति ही विराग है जो विकारों से मुक्ति है।
एषणाओं से अनासक्ति ही पर-वैराग्य है जो सद्-व्यय की स्वीकृति एवं निर्वाह है। इसलिए
·         विषयान्वेषण प्रवृत्ति स्वार्थ सीमा में,
·         एषणान्वेषण परार्थ सीमा में
·         सत्यान्वेषण परमार्थ सीमा में क्रियाशील है। इसलिये

Ø  स्वार्थपूर्ण व्यवहार अधम और असामाजिक,
Ø  परार्थ पूर्ण व्यवहार मध्यमोत्तम और सामाजिक, परमार्थ पूर्ण व्यवहार उत्तम और सामाजिक एवं स्वतंत्र पाया जाता है।
Ø  परमार्थ पूर्ण व्यवहार ही सर्वशुभ मानसिकता है।





मनुष्य में
बुद्घि मूलक एवं रूचि मूलक योगों से सुकर्म-दुष्कर्म जन्य गतिविधियाँ प्रसिद्घ है।
·         कासा, आकूति, मेधा प्राप्त योग जन्य बुद्घि;
·         मति, सुमति, अनुमति सुकर्म-जन्य बुद्घि;
·         अमति, कुमति, दुर्मति दुष्कर्म-जन्य प्रवृत्ति के प्रत्यक्ष रूप हैं।
Ø  योग-जन्य कासा का प्रत्यक्ष रूप कवि, कोविद्, कलाविद् के रूप में;
Ø  आकूति दिव्य कर्मी (स्पष्ट अभ्युदयकारी) दिव्य-प्रयोजनशील उपयोग (संयत भोग), दिव्य ज्ञानी (निर्भ्रांत) के रूप में तथा
Ø  मेधा परिपूर्ण ज्ञान समेत मोक्ष का प्रत्यक्ष रूप है। यही दया, कृपा, करूणा के रूप में प्रकट और स्पष्ट है।

·         सुकर्म-जन्य-मति मान्य (सामाजिक) कर्म, आचरण एवं कार्य-व्यवहार के रूप में;
·         सुमति-सुकर्म (समाज के लिये आवश्यकीय कर्म) आचरण एवं कार्य-व्यवहार के रूप में;
·         अनुमति अनुपम कर्म (अनुसरण योग्य), आचरण एवं कार्य व्यवहार के रूप में पायी जाती है।
सुकर्म ही सद्बुद्घि, सद्प्रवृत्ति, सुबोध, सद्-विज्ञान, सामाजिकता एवं सत्-संकल्प है।
·         दुष्कर्म जन्य अमति अमान्य (असामाजिक) कर्म, आचरण एवं कार्य-व्यवहार के रूप में;
·         कुमति, कुत्सित कर्म (विशेष रूप से निषिद्घ कर्म) आचरण एवं कार्य-व्यवहार के रूप में;
·         दुर्मति दुष्ट -कर्म, आचरण एवं कार्य-व्यवहार के रूप में गण्य है। इसलिए
Ø  विषयान्वेषी बुद्घि दुष्कर्म में,
Ø  एषणान्वेषी बुद्घि सत्कर्म में,
Ø  सत्यान्वेषी बुद्घि योग अर्थात् जागृति में प्रसक्त, प्रयास एवं अभ्यासरत पायी जाती है।
प्रत्येक मनुष्य का सहज प्रवृत्तन वातावरण, अध्ययन एवं संस्कार के योगफल के रूप में प्रत्यक्ष है।
प्रकृति एवं मनुष्य-कृत भेद से वातावरण प्रसिद्घ है।
·         शिक्षा एवं व्यवस्था ही मनुष्य-कृत वातावरण का प्रत्यक्ष रूप है।
·         मानव मात्र का संस्कार ‘‘अन्वेषण-त्रय’’ की सीमा में स्पष्ट है।
·         प्राकृतिक वातावरण की गणना प्रत्येक भूमि पर पाये जाने वाले शीत-उष्ण एवं वर्षा मान ही है। प्रत्येक भूमि पर जो प्राकृतिक वातावरण वर्तमान है वह उस भूमि में पाये जाने वाले खनिज एवं वनस्पति की राशि पर आधारित है। यह उस भूमि के विकास पर आधारित है।
किसी भी भूमि पर जीवों और ज्ञानावस्था के मनुष्य की अवस्थिति घटना के पूर्व ही वनस्पतियों का समृद्घ होना अनिवार्य है। इसके पूर्व जल का होना आवश्यक है।
प्रत्येक भूमि पर किसी अधिकतम-न्यूनतम शीत-उष्ण और वर्षा मान की सीमा में ही जीव एवं मनुष्य अपने जीवनी-क्रम और जीवन के कार्यक्रम को सम्पन्न करने में समर्थ हुए हैं।
प्राकृतिक वातावरण का संतुलन भी मनुष्य सहज जागृति के लिए सहयोगी है, इसलिए -
संतुलन के लिये आधार आवश्यक है।
Ø  अशेष प्रकृति का संतुलनाधार सत्ता ही है, जो पूर्ण है।
Ø  प्रत्येक क्रिया के संतुलन का आधार नियम है, जो पूर्ण है।
Ø  प्रत्येक व्यवहार के संतुलन का आधार न्याय है,जो पूर्ण है।
Ø  प्रत्येक विचार के संतुलन का आधार समाधान है, जो पूर्ण है।
Ø  प्रत्येक व्यक्ति में अनुभव का आधार सह-अस्तित्व रूपी परम सत्य है, जो समग्र है।
प्राकृतिक एवं मानव संतुलन एवं असंतुलन का प्रधान कारण मनुष्य ही है,
·         भ्रमित अवस्था में मनुष्य कर्म करते समय स्वतंत्र एवं फल भोगते समय परतंत्र है।
·         जाग्रत मानव कर्म करते समय तथा फल भोगते समय स्वतंत्र है।
जाग्रत अवस्था में समझकर करने वाली परम्परा रहेगी तथा भ्रमित अवस्था में कर के समझने वाली परम्परा रहेगी। प्राकृतिक वैभव का विशेषकर मनुष्य ही उपयोग करता है जो प्रत्यक्ष है। इसलिए -
ऋतु-संतुलन को बनाये रखने के लिये भूमि में आवश्यकीय मात्रा में खनिज वनस्पति को सुरक्षित रखते हुए उपयोग करना, साथ ही उसकी उत्पादन-प्रक्रिया में विध्न उत्पन्न नहीं करना और सहायक होना ही प्राकृतिक नियम का तात्पर्य है। यह पूर्णत: मानव का दायित्व है।
वनस्पति एवं खनिज जिनकी उत्पत्ति की संभावना एवं क्रम स्पष्ट है उनका उन्हीं के अनुपात में व्यय करना उचित है, अन्यथा प्राकृतिक दुर्घटनाओं से ग्रसित हो जाना स्वभाविक है।
Ø  शिक्षा एवं व्यवस्था ही सामूहिक (सामाजिक) संतुलन को बनाये रखने का एक मात्र उपाय है। सामाजिक संतुलन स्वधन, स्वनारी/स्वपुरूष एवं दया पूर्ण कार्य व्यवहार से है।
Ø  इसके विपरीत में असंतुलन के लिये पर नारी, परपुरूष, पर-धन एवं पर-पीड़ा ही है, जो प्रत्यक्ष है।
व्यक्ति के विचार-संतुलन के मूल में आवश्यकीय एवं अनावश्यकीय मूल प्रवृत्तियों की सक्रियता पाई जाती है। मानव के आवश्यकीय मूल प्रवृत्ति के मूल में संस्कार ही रहता है। अनावश्यकता के मूल में विवशताएं दृष्टव्य हैं।
आवश्यकीय मूल प्रवृत्तियाँ पाँच, अनावश्यकीय मूल प्रवृत्तियाँ भी पाँच है।
·         आवश्यकीय मूल प्रवृत्तियाँ क्रम से असंग्रह (समृद्घि), स्नेह, विद्या, सरलता एवं अभय (वर्तमान में विश्वास) के रूप में,
·         अनावश्यकीय मूल प्रवृत्तियाँ संग्रह, द्वेष, अविद्या, अभिमान एवं भय के रूप में प्रत्यक्ष हैं।

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