Sunday, May 31, 2020

मानव कर्म दर्शन - ए नागराज अध्याय – 1 (भाग-1)



मानव कर्म दर्शन - ए नागराज

अध्याय 1 (भाग-1)


अध्याय- एक
कर्म
(“कायिक, वाचिक, मानसिक कृत कारित अनुमोदित भेदों से
नौ प्रकार से हर मानव कर्म करता है। हर कर्म का फल होता है।”)
मनुष्य में कायिक, वाचिक एवं मानसिक कर्म तीनों कालों में प्रसिद्घ है। ये कृत-कारित अनुमोदित भेद से पूर्णत: नौ प्रकार से गण्य हैं, जो प्रत्यक्ष हैं।
मनुष्य का कार्यक्षेत्र केवल
Ø  प्राकृतिक,
Ø  सामाजिक एवं
Ø  बौद्घिक है,
जिसका अभीष्ट सुख है। इससे अधिक या कम नहीं है। इसके बिना मनुष्य में श्रम का प्रकटन नहीं है। इसलिए काँक्षा सहित क्रिया ही कर्म, संचेतना सहित गति ही सम्पूर्ण क्रिया है। अस्वीकार्य के स्वीकार का जो दबाव है वही वेदना है। वातावरण ही दबाव प्रदायी तथ्य एवं सापेक्षता है, जो प्रत्यक्ष है। सापेक्षता ही ह्रास विकास का प्रभावशाली तथ्य है।
प्रत्येक कर्म में
Ø  कर्ता,
Ø  कारण,
Ø  उद्देश्य,
Ø  फल एवं
Ø  प्रभाव
ये पाँच अंग समाहित रहते हैं।
आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही सम्पर्क एवं संबंध है। आवश्यकता ही इच्छा है, जिसके मूल में समाज, सामाजिकता, उसका पालन, परिपालन, आचरण, अनुसरण एवं अनुशीलन समाया रहता है।
·         दर्शन पूर्वक आवश्यकताओं का निर्धारण एवं
·         अनुसरण करने की स्वीकृति के लिए की गयी सम्पूर्ण क्रियाएं इच्छा के रूप में होती हैं
जो चैतन्य क्रिया में पाये जाने वाले संचेतना का प्रकटन है।
प्रत्येक इच्छा आवश्यकता की पूर्ति से मनुष्य सुखी होने की कामना करता है।
प्रत्येक कर्म में जो सुख की आशा है, यही अनुभव मूलक विधि से शान्ति, संतोष आनन्द सहज रूप से ज्ञातव्य है। इच्छा, कर्म फल का सन्तुलन ही अभीष्ट सिद्घि है जिसकी सम्भावना है।
Ø  बौद्घिक,
Ø  सामूहिक (सामाजिक) एवं
Ø  प्राकृतिक उत्थान
के लिए निश्चित दिशा के रूप में नियम तथा प्रक्रिया है, यही मानव का अभीष्ट है। इसलिए -
समस्त कर्म मनुष्य में चिरआशित सुख का पोषक शोषक सिद्घ हुआ है। यह तीन भागों में ज्ञातव्य है...
Ø  सुकर्म,
Ø  दुष्कर्म एवं
Ø  मिश्रित कर्म।

·      योग एवं जागृति के लक्ष्य भेद से सुकर्म,
·      अपराध एवं प्रतिकारात्मक रूप में दुष्कर्म तथा
·      भोग एवं प्रतिकार के रूप में मिश्रित कर्म दृष्टव्य है।
अशेष कर्म फल सापेक्ष है, इसलिए -
सम्पूर्ण कर्मों का फल चार रूपों में ज्ञातव्य है।
Ø  मोक्ष,
Ø  धर्म,
Ø  काम एवं
Ø  अर्थ।
इच्छा के बिना कर्म नहीं है। मनुष्य में इच्छाएँ
·         तीव्र इच्छा,
·         कारण इच्छा एवं
·         सूक्ष्म इच्छा भेद से ज्ञातव्य है।

Ø  तीव्र इच्छा, क्रिया के रूप में अवतरित होती हैं।
Ø  कारण इच्छाएं, क्रिया के रूप में अल्प संभाव्य हैं।
Ø  सूक्ष्म इच्छाएं, क्रिया के रूप में अत्याल्प संभाव्य हैं।

·      तीव्र इच्छाएं - जिसके बिना जीना नहीं होता।
·      कारण इच्छाएं - योग, संयोग, घटनावश जो प्रेरणाएं होती हैं यह सब कारण इच्छाएं हैं।
·      सूक्ष्म इच्छाएं - मानव में सत्य कोई वस्तु है, धर्म, न्याय, कोई वस्तु है जिसको प्रमाणित करने के लिए कोई स्पष्ट विचार नहीं रहता है।
सम्पूर्ण साधन अन्तरंग एवं बहिरंग भेद से दृष्टव्य है।
Ø अन्तरंग साधन आशा, विचार, इच्छा, संकल्प और अनुभव प्रमाणों के रूप में तथा
Ø बहिरंग साधन तन और धन के रूप में पाये जाते हैं।
यही जड़ और चैतन्य क्रिया का स्पष्ट रूप है। जड़ चैतन्य की एकसूत्रता, सन्तुलन सामंजस्य को पा लेना ही अभीष्ट सिद्घि है। अभीष्ट सिद्घि के लिए प्रत्येक मनुष्य प्रयासरत है, जो प्रत्यक्ष है।
साध्य (अभीष्ट) के लिए
·      साधक का समर्पण एवं
·      साधन का नियोजन आवश्यक है।
साधन ही अर्थ है जो तन, मन एवं धन के रूप में दृष्टव्य है। यह कार्य से निर्मित होने के साथ ही कर्म निर्माण के लिए साधन भी है।
प्रत्येक कर्म में अनुभूति एवं अनुमान क्रम उपलब्ध है। कर्मों का यह क्रम अनुभव पर्यन्त चलता रहेगा। सत्यानुभूति ही पूर्णता है। वस्तुस्थिति, वस्तुगत एवं स्थिति सत्य का अनुभव प्रसिद्घ है, इसलिए सम्पूर्ण अर्थ का पूर्ण अर्थ अनुभव ही है।
समस्त कर्म अर्थोपार्जन हेतु ही हैं, जिसका प्रयोजन अनुभव है। समस्त अर्थ का
Ø उपार्जन,
Ø उपयोग,
Ø सदउपयोग एवं
Ø वितरण
भी इच्छा की पूर्ति के लिए ही होता है। इच्छा की पूर्ति के मूल में अनुभव ही है। यह केवल जागृति पूर्वक व्यक्ति एवं समग्र मनुष्य में प्रत्यक्ष है। जो अस्तित्व में है उसी का दर्शन एवं ज्ञान है। दर्शन और ज्ञान ही अनुभव है।
मानव में सुख रूपी अभीष्ट-साम्य है। अंतरंग बहिरंग साधन का अनुभव के लिए प्रयुक्त होना ही प्रबुद्घता है। अन्यथा अप्रबुद्घता है। इन दोनों स्थितियों की सम्भावना ही वैविध्यता का आधार है।
अन्तरंग साधन (आशा, विचार, इच्छा, संकल्प, प्रमाण) की क्षमता के अनुरूप ही बहिरंग साधनों का नियन्त्रण है। अन्तरंग समुच्चय ही चैतन्य है।
जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति ज्ञान (सत्ता) में समाहित है, इसलिए वह उसमें नियन्त्रित है ऐसे साम्य-नियंत्रण के अनुभव पर्यन्त विकास और जागृति है।
ज्ञानपूर्ण जीवन में निर्भ्रमता का उदय एवं विपरीत में भ्रम का भास दृष्टव्य है। ज्ञान में ही अनुभव, संकल्प, इच्छा, विचार एवं आशा है, जिनका पूर्ण प्रकटन चैतन्य इकाई की जागृति शीलता एवं क्षमता पर आधारित पाया जाता है।
निर्भ्रमता पूर्ण क्षमता ही उचित एवं परिमार्जित कर्म करने में समर्थ होने के कारण अभीष्ट सिद्घि है। मनुष्य के द्वारा प्रकट होने वाला ज्ञान तीन प्रकार से ज्ञातव्य है :
Ø  भौतिक
Ø  बौद्घिक एवं
Ø  अध्यात्मिक (सह-अस्तित्व)
इनका प्रत्यक्ष रूप कुशलता, निपुणता एवं पांडित्य है।
·         प्रधानत: समस्त बहिरंग साधनों से पदार्थ विज्ञान की साधना तथा
·         अन्तरंग साधनों से बौद्घिक एवं अध्यात्म विज्ञान की साधना है
Ø  पदार्थ विज्ञान मनोविज्ञान सापेक्ष ज्ञान अध्ययन हैं।
Ø  अध्यात्म (सत्ता) निरपेक्ष (निश्चित) ज्ञान है।
सापेक्षता में आय, व्यय, ह्रास, विकास एवं जागृति है।
सम्पूर्ण शब्द-शक्तियों का
·         सद्-व्यय ज्ञानकारक एवं
·         अपव्यय अज्ञानकारक है।
जो जिसका अपव्यय करता है वह उससे वंचित हो जाता है, इसलिए
समस्त कर्मों के फलस्वरूप ही
Ø  अर्थ-अनर्थ,
Ø  सुकाम-दुष्कर्म,
Ø  धर्म-अधर्म तथा
Ø  मोक्ष-बंधन है।
·         अर्थ, सुकाम, धर्म एवं मोक्षगामी जागृति जीवन कार्यक्रम में सुख तथा
·         इसके विपरीत अनर्थ, दुष्कर्म, अधर्म एवं बन्धन की प्रक्रिया एवं जीवन में समस्या ही दु: और पीड़ा है।

Ø  धर्म का तात्पर्य सर्वतोमुखी समाधान से है।
Ø  अर्थ का तात्पर्य तन, मन, धन से है। परम अर्थ का तात्पर्य अनुभव है।
Ø  काम का तात्पर्य जागृत मानव में संज्ञानीयता पूर्वक संवेदनाएं नियन्त्रित और प्रमाणित होने से है।
Ø  मोक्ष का तात्पर्य भ्रममुक्ति से है।
·         अर्थ ही सुख,
·         सुकर्म ही शान्ति,
·         धर्म ही सन्तोष एवं
·         मोक्ष ही परमानन्द है।
समस्त इच्छाओं के सात भेद हैं :-
(1) मोक्ष के लिए अर्थ [उत्तमोत्तम]
(2) धर्म के लिए अर्थ [मध्यमोत्तम]
(3) काम के लिए अर्थ [उत्तम]
(4) अर्थ के लिए अर्थ [मध्यम]
(5) अर्थ के लिए काम [अधम-मध्यम,]
(6) अर्थ के लिए धर्म तथा [अधम]
(7) अर्थ के लिए मोक्ष। [अधमाधम]
ये क्रम से सात उत्तमोत्तम, मध्यमोत्तम, उत्तम, मध्यम, अधम-मध्यम, अधम अधमाधम हैं।


1 comment:

  1. Omsum clarifying content towards Enlighten Humanity.

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