जड़-चैतन्य का विराट दृश्य
तुम धरा में खोजते,
हीरे, मोती, सोना, चांदी,
मैं तुममें ही खोजता,
दिव्य अलौकिक हीरे-मोती ।1।
तुम धरा में खोजते,
रूप, रंग औ रस, गंध,
मैं तुम में ही खोजता,
रूप, रंग और दिव्य रस ।2।
तुम धरा में खोजते,
उसके उद्गम और विस्तार को,
मैं तुम में ही खोजता,
तेरे उद्गम और सार को ।3।
जड़ की विस्तार खोज में,
तुम अनंत में खो गए,
जीवन का विस्तार देखकर,
मैं अनंत में खो गया ।4।
उद्गम-अंत एक रहस्य सा,
लगता तुझको मुझको है,
जड़-चैतन्य का विराट दृश्य,
दिखता तुमको मुझको है ।5।
जड़-चेतन के संगम से,
एक रचेगा बाहर दुनिया,
एक रचेगा अंदर से ।6।
डा. सुरेन्द्र पाठक
(यह रचना 1985 M.Tech. (Applied Geology) कोर्स पूरा होने के बाद हुए फेयरवेल के समय लिखी थी और वहां प्रस्तुत की थी)