Sunday, May 31, 2020

मानव कर्म दर्शन - ए नागराज अध्याय – 1 (भाग-5)


मानव कर्म दर्शन - ए नागराज



अध्याय – 1 (भाग-5)

मनुष्य सम्बन्ध एवं सम्पर्क सीमा पर्यन्त व्यवहार के लिए बाध्य है।
मूल्य विहीन सम्पर्क एवं सम्बन्ध नहीं है।
प्रत्येक परस्परता में अपेक्षायें समाहित हैं। मूलत: यही सापेक्षता है। यही बाध्यता है।

ज्ञान गोचर, दृष्टिगोचर के आधार पर ही प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम क्रिया का वर्गीकरण एवं निर्धारण है।
Ø  सान्निध्य की निरंतरता का अनुभव ही प्रत्यक्ष,
Ø  सान्निध्य की निरंतरता की संभावना ही अनुमान,
Ø  सान्निध्य संभावना के अतिरिक्त अस्तित्व ही आगम क्रिया है।
Ø  प्रकृति की अनन्तता एवं सत्ता में पूर्णता ही अनुमानातिरिक्त अस्तित्व का प्रमाण है।

स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण भेद से प्रत्यक्ष क्रियायें हैं।
Ø  सामान्य बुद्घि से स्थूल,
Ø  विशेष बुद्घि से सूक्ष्म,
Ø  विशिष्ट बुद्घि से कारण का प्रत्यक्षीकरण प्रसिद्घ है।
इसी के आधार पर अनुमान और आगम क्रिया का भी स्थूल, सूक्ष्म और कारण रूप में रहने का प्रमाण सिद्घ होता है।
Ø  रूप और गुण स्थूल;
Ø  गुण और स्वभाव सूक्ष्म;
Ø  स्वभाव  और धर्म कारण क्रियायें है।
इसलिये
व्यवहार उत्पादन कर्मों में तीन स्तर में प्रवृत्तियों को पाया जाता है:-
·         स्वतंत्र
·         अनुकरण
·         अनुसरण।
स्वतंत्र प्रवृत्तियों की क्रियाशीलता उन परिप्रेक्ष्यों में स्पष्ट होती हैं जिनके सम्बन्ध में ये विशेषज्ञ हैं।
जो विशेषज्ञ होने के लिये इच्छुक हैं उन्हें अनुकरण क्रिया में व्यस्त पाया जाता है।
जिनमें विशेषज्ञता के प्रति इच्छा जागृत नहीं हुई है उन्हें अनुसरण क्रिया में अनुशीलनपूर्वक ही कर्म एवं व्यवहाररत पाया जाता है। ये विकास एवं अवसर के योगफल का द्योतक है। अवसर प्रधानत:व्यवस्था एवं शिक्षा ही है।
Ø  स्वतंत्र-सक्रियता स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण क्रिया की सान्निध्यानुभूति-क्षमता से;
Ø  अनुकरणात्मक सक्रियता स्थूल एवं सूक्ष्म क्रिया की सान्निध्यानुभूति क्षमता से;
Ø  अनुसरणात्मक-सक्रियता स्थूल क्रिया की अनुभूति-क्षमता से सम्पन्न पायी जाती है।
यही व्यंजनीयता की क्षमता में प्रत्यक्ष अन्तरान्तर है।
Ø  स्वतंत्र सक्रियता में नियंत्रण-क्षमता,
Ø  अनुकरण-क्षमता में स्वेच्छा से नियन्त्रित होने की क्षमता,
Ø  अनुसरण सक्रियता में अनुशासित होने की क्षमता समाहित है।
सार्वभौमिक कामनानुरूप कार्यक्रम में रत होने से ही सभी स्थितियों में दोष दूर होते हैं। यही मांगल्यप्रद है।
·         पर-धन, पर-नारी/पर-पुरूष एवं पर-पीड़ा ही व्यवहारिक, सामाजिक एवं भौतिक उन्नति तथा जागृति में बाधक है।
·         राग, द्वेष, अविद्या एवं अभिमान बौद्घिक जागृति में अवरोधक सिद्घ हुए हैं।
·         भय, आध्यात्मिक अनुभूति (सह-अस्तित्वानुभूति) योग्य क्षमता के विकास में अवरोधक है।
प्राकृतिक वैभव के अपव्यय से ऋतु-असंतुलन एवं उससे क्लेशोदय होता है, जो प्रत्यक्ष है।
Ø  स्व-धन,स्वनारी/स्व पुरूष एवं दयापूर्ण कार्य व्यवहार तथा आचरण से सामाजिक सुख एवं संतुलन का;
Ø  असंग्रह (समृद्घि), स्नेह, विद्या एवं सरलता से बौद्घिक सुख का;
Ø  अभयता से आध्यात्मिक आनन्द का अनुभव है।
यही भौतिक, बौद्घिक एवं आध्यात्मिकता का प्रयोजन उत्पादन, विचार एवं अनुभूति का व्यक्ति-परिवार-समाज-राष्ट्र एवं अन्तर्राष्ट्र की एकसूत्रता, संतुलन, समाधान एवं समृद्घि है। यही सार्वभौमिक साम्य कामना है।
समस्त कर्मों से मानव ने
Ø  सत्य में प्रतिष्ठा,
Ø  धर्म में आरूढ़ता,
Ø  न्याय में निरन्तरता एवं
Ø  वस्तु की उपयोगिता
का अनुभव करने की कामना एवं प्रयास किया है। जिसके लिये सत्याभिमुखी, धर्माभिमुखी, न्यायाभिमुखी तथा विषयाभिमुखी प्रयास किये हैं। यह प्रत्यक्ष है।
·         भौतिक द्रव्यों का नियंत्रण, उपार्जन, उपयोग एवं सद्उपयोग,
·         सामाजिक मूल्यों का वहन-निर्वहन, आचरण एवं निरन्तरता,
·         सत्यता-सत्य का बोध एवं अनुभव ही प्रतिष्ठायें है। इनके बिना मनुष्य तृप्त एवं निर्भ्रांत नहीं है।

Ø  उत्पादन और सेवा में अर्थ का उपार्जन,
Ø  अर्थ के सदुपयोग में समृद्घि,
Ø  संयत उपयोग एवं सद्उपयोग में संतुलन,
Ø  सार्वभौमिक धर्म में समाधान,
Ø  सत्य-सत्यता में अनुभव तथा आनन्द प्रसिद्घ है।


v  अनुभूति आनन्द ही नित्य प्रतिष्ठा;
v  धर्म एवं न्याय सम्मत आचरण, व्यवहार, व्यवस्था, विधि एवं शिक्षा ही समाधान एवं अमर प्रतिष्ठा;
v  विषय-प्रवृत्ति ही अल्प प्रतिष्ठा से प्रतिष्ठित पायी जाती है। इसलिये-
क्रिया, कर्म, पदार्थ, प्रक्रिया, फल और शक्तियाँ ये परस्पर पूरक हैं।
Ø  क्रिया ही पदार्थ,
Ø  पदार्थ ही प्रक्रिया, [पारंगत होने की प्रक्रिया]
Ø  प्रक्रिया ही फल,
Ø  फल ही शक्तियाँ, [स्वभाव गति सहज रूप में प्रमाण।]
Ø  शक्तियाँ ही क्रिया एवं कर्म हैं।
ये सभी पदार्थ की सीमा में दृष्टव्य हैं।

Ø  श्रम, गति एवं परिणामशीलता क्रिया की,
Ø  उसका परावर्तन कर्म की,
Ø  अर्थवत्ता पद की,
Ø  विकासशीलता प्रक्रिया की,
Ø  उपयोगिता फल की,
Ø  तरंग, दबाव एवं प्रभाव शक्तिवत्ता की
स्थितिवत्ता को स्पष्ट करता है। ये सब पदार्थ की सीमा  में  पाये जाने वाले परावर्तन या परिवर्तनशील प्रकटन है। इसलिये -

v  सापेक्ष रूप से जड़ शक्तियाँ एवं
v  अपेक्षा रूप में चैतन्य शक्तियाँ स्थितिशील हैं और
v  निरपेक्ष रूप में अध्यात्म-सत्ता स्थिति पूर्ण है।

Ø  जड़ शक्तियाँ ताप, प्रकाश, विद्युत, आकर्षण एवं ध्वनि के रूप में;
Ø  चैतन्य शक्तियाँ, आशा, विचार, इच्छा, संकल्प एवं अनुभूति के रूप में प्रसिद्घ हैं।
Ø  जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति की आधारपूर्ण सत्ता ही अध्यात्म है जो निरपेक्ष है।

v  मध्यस्थ क्रिया एवं सत्ता में बोध एवं अनुभूति होती है।
v  मध्यस्थ क्रिया ही आत्मा और सत्ता ही मध्यस्थ है। इसलिये
v  जड़ शक्तियाँ प्रधानत: गतिशील,
v  चैतन्य शक्तियाँ संचेतनशील हैं।

Ø  अभाव,
Ø  भाव और
Ø  तिरोभाव
की स्वीकार-क्षमता ही संवेदना है। यह क्रम से
Ø  अभाव में वेदना,
Ø  भाव में संवेदना एवं
Ø  तिरोभाव में सम्बोधना है।
यही सम्यक बोध है। यही अनुभव का पूर्व लक्षण है।
Ø  अभाव का भाव के लिये प्रयोग और उत्पादन,
Ø  भाव की पूर्णता के लिये आचरण एवं व्यवहार,
Ø  भाव का तिरोभाव के लिये अभ्यास प्रसिद्घ है।
भाव ही मौलिकता, मूल्य एवं अर्थ है।
प्रत्येक अर्थ का पूर्ण अर्थ अनुभव ही है। इसलिये
v  संचेतना के अभाव में मूल्य, भाव एवं मौलिकता का निर्धारण नहीं है।
v  संचेतना-क्षमता में ही स्थितिवत्ता की दिशा, काल, मात्रा, गति, उपयोग, गन्तव्य, योग, वियोग, ह्रास, जागृति, उचित, अनुचित एवं विधि-निषेध का निर्णय एवं विवेचना करने की विशेषता निहित है।
v  यह जब तक सार्वभौमिक रूप में शिक्षाप्रद एवं अवगाहन योग्य हो तब तक संदिग्धता वाद-विवाद, सीमा और भ्रान्तियाँ हैं। फलत: वर्ग एवं समरोन्मुखता भावी है।

Ø  निर्णायक क्षमता कारण, गुण, गणित के रूप में,
Ø  विवेचना क्षमता आत्मा के अमरत्व, शरीर का नश्वरत्व एवं व्यवहार के नियमों को स्पष्ट करने की प्रबुद्घता के रूप में प्रत्यक्ष हैं।
जड़ शक्तियों की अपेक्षा में चैतन्य शक्तियाँ अधिकाधिक सक्षम हैं। इसका प्रत्यक्ष साक्ष्य है कि चैतन्य शक्तियों के अभाव में मनुष्य के शरीर के द्वारा सम्पादित होने वाला क्रियाकलाप सिद्घ नहीं होता है। इसलिये -
मनुष्य शरीर के लिये जितना ईंधन प्रायोजित करता है, उससे अधिक मात्रा में शक्तियों का बहिर्गमन करता है इसलिये भी-
चैतन्य शक्तियों की क्षमता जो पाँच रूप में गण्य हैं उसका मूल्यांकन एवं अनुभव उन्हीं की परस्परता में सम्पन्न होता है।
v  आशा से सम्पन्न मन, विचार से सम्पन्न वृत्ति का अनुभव करता है।
v  विचार से सम्पन्न वृत्ति, आशा से सम्पन्न मन का दर्शन करती है।
v  विचार से सम्पन्न वृत्ति, इच्छा से सम्पन्न चित्त का अनुभव करती है।
v  इच्छा से सम्पन्न चित्त, विचार से सम्पन्न वृत्ति का दर्शन करता है।
v  शुभ इच्छा से सम्पन्न चित्त, सत्संकल्प से सम्पन्न बुद्घि का अनुभव करता है।
v  सह-अस्तित्व में अनुभवपूर्ण आत्मा जागृति का प्रमाण है।
v  अनुभवपूर्ण आत्मा, संकल्प सम्पन्न बुद्घि का दर्शन करती है।
यही अनुभव समुच्चय है। यही पूर्ण जागृति है।
Ø  अधिक जागृत, कम जागृत का दर्शन;
Ø  कम जागृत, अधिक जागृत को पहचानता है।
 इसलिये
Ø  अधिक जागृत का, कम जागृत पर नियंत्रण है :
Ø  कम जागृत, अधिक जागृत के नियंत्रण में है। इसलिये भी

मनुष्य जीवन में ही स्थूल, सूक्ष्म, कारण संबद्घ विशेषतायें दृष्टव्य हैं। इन तीनों स्थितियों में सुख, शांति, संतोष एवं आनन्द की ही अपेक्षा है।
Ø  मनुष्य का स्थूल जीवन सुख शांति की अपेक्षा में,
Ø  सूक्ष्म जीवन शांति संतोष की अपेक्षा में एवं
Ø  कारण जीवन आनन्द एवं परमानन्द की प्रतीक्षा में हैं
जिसके लिए यह जागृति क्रम है।
इसी के अनुकूल सर्वतोमुखी कार्यक्रम ही जागृति है। यही भौतिक, बौद्घिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धियाँ भी हैं। यह केवल मानवीयता एवं अतिमानवीयतापूर्ण कार्यक्रम पूर्वक सफल हुआ है।
जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति में पाई जाने वाली शक्तियों की प्रयुक्ति एवं नियोजन उद्भव, विभव एवं प्रलय की सीमा में ही है। इससे अधिक परिपे्रक्ष्य में गुण नियोजन एवं प्रयुक्ति नहीं है।
सम्पूर्ण नियोजन का आद्यान्त अभीष्ट जागृति की पूर्णता ही है।
इकाई की जागृतिपूर्णता में ही संबोधन-क्षमता प्रकट हुई है।
उद्भव, विभव, प्रलय में से विभव ही सर्वस्वीकृत घटना है। जागृति की पूर्णता में ही विभववत्ता की प्रतिष्ठा पाई जाती है।
उसके पूर्व योग, वियोग और संयोग, सापेक्षता की सीमा में व्यवहार, कर्म, विहार रत पाये जाते है। ये सब स्थितियाँ जागृति के क्रमान्तर का द्योतक है।
कर्म फलवती है। भ्रमित मनुष्य फल भोगते समय में परतंत्र है। इसी सार्वभौमिक नियमवश ही मनुष्य कर्म और उसकी फलवत्ता के प्रति निर्भ्रम होने के लिए बाध्य है।
मनुष्य द्वारा भ्रमित अवस्था में किया गया कर्म एवं उसका स्वभाव फल के प्रति संदिग्धता, सशंकता तथा अज्ञानता का होना दृष्टव्य है जबकि यह उपलब्धि मनुष्य से वान्छित नहीं हैं।
Ø  विभव में प्रयुक्त गुण ही मध्यस्थ,
Ø  प्रलय में प्रयुक्त विषम,
Ø  उद्भव में प्रयुक्त सम है।
यही क्रम से
Ø  परमार्थ,
Ø  स्वार्थ,
Ø  परार्थ कर्म  है।
यही, व्यवहार के रूप में
Ø  निर्भ्रांत,
Ø  भ्रांत एवं
Ø  भ्रान्ताभ्रान्त
अवस्था में प्रत्यक्ष है।
सम, विषम, मध्यस्थ शक्तियाँ क्रम से रजोगुण, तमोगुण एवं सत्वगुण हैं।
v  सत्वगुण सम्पन्न व्यक्ति का आचरण
·         व्यवहार के साथ दया, आदर, प्रेम जैसे मूल्यों सहित
·         विवेक विज्ञान क्षमतापूर्ण होता है।
v  रजोगुण सम्पन्न व्यक्ति के आचरण में
·         धैर्य, साहस, सुशीलता जैसे मूल्यों सहित
·         विज्ञान का सद्उपयोग होता है।
v  तमोगुण सम्पन्न व्यक्ति आचरण में 
·      ईर्ष्या, द्वेष, अभिमान एवं अहंकार जैसे अवांछनीय विकृतियों सहित
·      विज्ञान क्षमता का अपव्यय होता है।
इसलिये-
सत्य-सम्बद्घ-विधि-व्यवस्था, विचार, आचरण, व्यवहार, शिक्षा, दिशा, कर्म एवं पद्घति के अनुसार वर्तना ही मानव में व्यष्टि समष्टि का धर्म पालन है।
मनुष्य का स्व-धर्म पालन ही वर्ग एवं सीमा विहीनता है, जो स्वयं में
Ø  सह-अस्तित्व, सामाजिकता, समृद्घि, संतुलन, नियंत्रण, संयमता, अभय, निर्विषमता, सरलता एवं उदारता है।
Ø  इसी में दया, स्नेह, उदारता, गौरव, आदर, वात्सल्य, श्रद्घा, प्रेम, कृतज्ञता जैसे सामाजिक स्थिर मूल्यों का वहन होता है।
Ø  यही मानव की चिर-वाँछा भी है। यही स्वस्थ सामाजिकता की आद्यान्त उपलब्धि है।
सच्चरित्र पूर्ण व्यक्तियों की बाहुल्यता के लिये उनका
Ø  सहयोग प्रोत्साहन,
Ø  उनकी समुचित शिक्षा संरक्षण एवं
Ø  उनके अनुकूल परिस्थितियाँ ही विश्व शान्ति का प्रत्यक्ष रूप है।
Ø  इसके विपरीत में अशान्ति है, जो स्पष्ट है।
व्यवहार-त्रय [कायिक, वाचिक, मानसिक व्यवहार]  नियम का पालन ही सच्चरित्रता है। यही मानव की पाँचों स्थितियों में प्रत्यक्ष गरिमा है। यही सहज निष्ठा है और इसी में विज्ञान और विवेक पूर्णरूपेण चरितार्थ हुआ है। फलत: स्वस्थ व्यवस्था-पद्घति एवं शिक्षा-प्रणाली प्रभावशील होती है।
‘‘व्यवहार-त्रय’’ का तात्पर्य जागृत मानव के द्वारा किया गया कायिक, वाचिक, मानसिक व्यवहार से है।
समस्त परिणाम, परिमार्जन[1] एवं परिवर्तन[2] पाँच प्रकार से दृष्टव्य है:-
Ø  सह-अस्तित्व रूपी अस्तित्व में
Ø  विकासक्रम
Ø  विकास
Ø  जागृति क्रम
Ø  जागृति पूर्णता।
इसमें
Ø  पदार्थावस्था [रूप-परिवर्तन] परिणाम[3] पूर्वक यथास्थिति पूरक रूप में प्रयोजनशील है।
Ø  प्राणावस्था [परिवर्तन-बीजपरिवर्तन] परिणामपूर्वक स्पन्दन, पुष्टि सहित रचनाशील यथास्थिति पूरक के रूप में प्रयोजनशील है।
Ø  जीवावस्था परिवर्तन [वंश-परिवर्तन], परिणाम सहित जीने की आशा पूर्वक यथास्थिति पूरकता सहित प्रयोजनशील है।
Ø  मानव ज्ञानावस्था में गण्य है, यह परिमार्जन पूर्वक जागृति और जागृति पूर्णता सहज परम्परा है।
यही यथास्थिति पूरकता रूप में प्रमाण होना पाया गया है।
भोग एवं बहु भोगवादी जीवन में मनुष्य स्वयं को स्वस्थ बनाने तथा अग्रिम पीढ़ी के आचरणपूर्वक जागृति के लिये शिक्षा प्रदत्त करने में समर्थ नहीं है और हो सकता है।
यह ज्वलन्त तथ्य ही विचार परिवर्तन एवं परिमार्जन का प्रधान कारण है। भोग संस्कृति का आधार नहीं है। इसलिये -
संस्कृति विहीन जीवन में
Ø  तृप्ति,
Ø  अभय,
Ø  संतुलन एवं
Ø  समाधान नहीं है
जबकि पूरी जागृति व्यवस्था तृप्ति, अभय, संतुलन और समाधान के लिये है। इसलिये भी
संस्कृति के अभाव में सभ्यता, विधि एवं व्यवस्था का असंदिग्ध होना संभव नहीं है। इसलिये यही क्षोभ, संताप, आवेश, रोष, आक्रोश, द्वन्द्व, प्रतिद्वन्द्व, आतंक, भय, उद्वेग के रूप में स्पष्ट है। यह मनुष्य का इष्ट नहीं है। इसलिये
वह (मानव) इष्ट की ओर प्रगति के लिये बाध्य है। यही मनुष्य में विचार परिवर्तन एवं परिमार्जन की संभावना है। साथ ही संस्कारों में गुणात्मक उदय के लिये अवसर है।
संस्कारों में गुणात्मक उदय का प्रत्यक्ष रूप ही है ‘‘नियम-त्रय’’ का पालन। इसी विधि से संयत भोग प्रवृत्ति सामाजिक मूल्यों की निर्वाह क्षमता स्वभाव सिद्घ हो जाता है।
संयत भोग प्रवृत्ति का तात्पर्य सार्वभौम व्यवस्था सहज प्रमाण है। इस विधि से जीकर देखा गया है। इसलिये
यही सार्वभौमिक कामना भी है।
परिमार्जित विचार ही विवेक पूर्ण विज्ञान है। यही निपुणता, कुशलता एवं पाण्डित्य के रूप में सिद्घ हुआ है।
प्रत्येक सिद्घि प्रयोग, व्यवहार एवं अनुभव पूर्वक हुई है, जो प्रत्यक्ष है।
Ø  भोग परिणाम की सीमा में पशु मनुष्य एवं राक्षस मनुष्य दृष्टव्य है।
Ø  विचार परिणाम की सीमा में मनुष्य एवं देव मनुष्य प्रत्यक्ष है।
Ø  दिव्य मनुष्य में कोई परिणाम, परिमार्जन एवं परिवर्तन की संभावना नहीं है क्योंकि दिव्य मानव गन्तव्य स्थित है। उसकी निरन्तरता ही भावी है। इसलिये
विज्ञान एवं विवेकपूर्ण क्षमता ही
Ø  पदार्थ का रूप,
Ø  रूप में निहित गुण,
Ø  गुण में निहित प्रभाव,
Ø  प्रभाव में निहित स्वभाव,
Ø  स्वभाव में निहित क्षमता,
Ø  क्षमता में निहित गति,
Ø  गति में निहित विधि,
Ø  विधि में निहित व्यवस्था,
Ø  व्यवस्था में निहित प्रभुता,
Ø  प्रभुता में निहित विभुता,
Ø  विभुता में निहित विभव,
Ø  विभव में निहित विश्व,
Ø  सत्ता में समाहित विश्व का अनुमान होता है।
यही परिमार्जनशीलता की उपलब्धि है। प्रमाण के पूर्व अनुमान ज्ञातव्य है।
विज्ञान का उर्ध्व एवं अधोमुखी प्रयोग हुआ है जबकि विवेक केवल उर्ध्वमुखी प्रयोग की ही प्रतिष्ठा है।
Ø  विज्ञान के उर्ध्वमुखी प्रयोग का तात्पर्य - उर्ध्वमुखी प्रयोग के रूप में दूरसंचार सुलभ होना स्पष्ट है और
Ø  अधोमुखी प्रयोग से सामरिक तंत्र (यान्त्रिक युद्घ तंत्र) होना स्पष्ट हुआ। धरती में प्रदूषण के मूल में खनिज कोयला, खनिज तेल, विकिरणीय द्रव्यों का ईंधनावशेष के रूप दृष्टव्य है।
विज्ञान शक्ति के सही प्रयोग में भय एवं आतंक जैसी अनिष्ट घटना नहीं होती है। विवेक के सही प्रयोजन की स्थिति में अनिष्ट सिद्घ नहीं होता है। इसलिये -
विवेकपूर्णता क्षमता का उदय होना या होना पाया जाता है कि विवेकपूर्ण क्षमता का अपव्यय। जबकि विज्ञानपूर्ण क्षमता का अपव्यय एवं सद्-व्यय प्रत्यक्ष है। इस प्रकार सिद्घ होता है कि विज्ञान का नियंत्रण विवेक से ही है, कि विज्ञान का नियंत्रण विज्ञान से।
Ø  विकास की ओर प्रगति ही उर्ध्वमुख,
Ø  ह्रास की ओर विवशता अधोमुख है, जो स्पष्ट है।
विकास की प्रत्येक स्थिति उससे अधिक विकास की श्रृंखला-सम्बद्घ है। इसलिये प्रत्येक स्थिति अग्रिम विकास के लिये बाध्य है।
Ø  विकास की ओर प्रगति में उत्साह, प्रसन्नता तथा हर्ष का अनुभव है।
Ø  इसके विपरीत में ह्रास की ओर गति से खिन्नता, निरूत्साह, विवशता एवं क्लेश है।

Ø  उर्ध्वमुखी विज्ञान शुद्घ रजोगुण तथा सत्व-गुणपूर्वक विभव कार्य  में प्रसक्त है, जो विज्ञान की वास्तविक चरितार्थता है। साथ ही
Ø  इसके विपरीत में विज्ञान में मलिन रजोगुण तथा तमोगुणपूर्वक संहार एवं अतिभोग प्रसक्त है जो विज्ञान के पूर्ण दुरूपयोग का द्योतक है।

Ø  मानवीयतापूर्ण मनुष्य और उससे अधिक जागृतिशीलता ही उर्ध्वमुखी जीवन में गण्य है जिसमें दया, सरलता, त्याग, तप, परोपकार, सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह तथा गौरव जैसी मौलिक मूल्यवत्ता आचरित होती है। यही स्व-पर मांगलिक है।
Ø  दुष्चरित्रपूर्ण जीवन का भय-त्रस्त होना विवशता है, जो स्व-पर पीड़ा का प्रधान कारण है। यही मानव में निहित अमानवीयता का भय है। यही असामाजिकता एवं असहअस्तित्व का मूल रूप है।
मानव-कुल के साथ स्नेह करने की क्षमता ही विश्वास एवं संतोष की निरन्तरता है। यही अग्रिम विकास के लिये उत्साह एवं प्रवर्तन भी है।
विश्वासविहीन सम्बन्ध सफल नहीं है। सम्बन्ध रहित स्थिति में कर्म सिद्घि नहीं है।
प्रत्येक सामाजिक मूल्य का निर्वाह विश्वास पूर्वक ही सफल हुआ है। इसलिए -
Ø  न्यायपूर्ण व्यवहार,
Ø  समाधान पूर्ण विचार, एवं
Ø  सत्यानुभूतिपूर्ण
जीवन में क्लेशों का अत्याभाव होता है, यही सर्वमंगल है।
विवेकानुगामी विज्ञान के प्रयोग से ही मानव की प्रत्येक अवस्था का जीवन सर्वांग सुन्दर है। यही सर्व मानव कल्याणकारी कर्म-प्रवृत्ति एवं उपलब्धि है, यही सर्वमंगल है।
विवेक विज्ञान सम्पन्न कर्म-परम्परा ही लोकमंगल कर्म है। यही मानव की चिर आशा, आकाँक्षा, आवश्यकता एवं अवसर है।
‘‘सर्व शुभ हो, नित्य शुभ हो’’



[1]  गुणात्मक परिवर्तन, जागृति क्रम में अमानवीयता से मानवीयता, मानवीयता से अतिमानवीयता पूर्ण संचेतना का प्रकाशन।
[2]  पूर्व से भिन्न गुणों का प्रकाशन।, वंश परिवर्तन,
[3] मात्रात्मक व गुणात्मक परिवर्तन।